वात दोष (Vata Dosha) – वात दोष के कारण, लक्षण

by DR. HAMID HUSSAIN
वात दोष (Vata Dosha) - वात दोष के कारण, लक्षण

वात की व्युत्पत्ति (Derivation of Vata) :- वा धातु + क्त प्रत्यय लगने से वात शब्द बना है।

वात निरुक्ति (Etymology of term Vata) :- वात या वायु शब्द वा गति गन्धनयोः धातु से बनता है। वात का अर्थ गति होता है। गति के तीन अर्थ ज्ञान, गमन, चेष्टा या प्राप्ति है।

  • वात ज्ञान इन्द्रियों के अर्थों का ग्रहण कराता है (Function of sense organs)
  • गमन (All movement of mind and body)
  • प्राप्ति (Secretion reached their target organ)

शरीर में गति, ज्ञान तथा प्राप्ति के जनक को वात कहते है।

“गति प्राप्ति ज्ञानमित्यनर्थान्तरम्’ (पाणिनी)

वात दोष (Vata Dosha) - वात दोष के कारण, लक्षण

वात के स्थान (General location of Vata)

वात, पित्त एवं कफ सर्वशरीर व्यापी होते हैं किन्तु स्थान एवं कार्य की भिन्नता के कारण इनके स्थान एवं नाम भिन्न-भिन्न बताये हैं।

सर्वशरीरचरास्तु वातपित्त श्लेष्मणाः सर्वस्मिञ्छरीरे कुपिताकुपिताः शुभाशुभानि कुर्वन्ति। (च. सू. 20/9)

वात के स्थान

चरक मतानुसार (च.सू.20/8)सुश्रुतानुसार (सु.सू.21/6)अष्टाङ्गहृदय मातनुसार (अ.ह.सू.12/1)
बस्ति (Urinary bladder)श्रोणि (Region pelvic)पक्वाशय (Large intestine)
पुरीषाधान (Rectum)गुदकटि (Pelvic region)
कटि (Pelvic Region)सक्थिनी (Thigh)
सक्थिनी (Thigh)कर्ण (Ears)
दोनों पैर (Lower Libs)अस्थि (Bones)
अस्थियाँ (Bones)त्वचा (Skin)
पक्वाशय वात का प्रमुख स्थान है।पक्वाशय को वात का विशिष्ट स्थान माना है।

1. बस्तिः पुरीषाधानं कटिः सक्थिनी पादावस्थीनि।
वातस्थानानि, तत्रापि पक्वाशयो विशेषेण वातस्थानम्। (च. सू. 20/8)

2. तत्र समासेन वात श्रोणिगुदसंश्रयः। (सु. सू. 21/6)

3. पंक्वाशय कटी सक्थि श्रोत्रास्थि स्पर्शनेन्द्रियम्।
स्थानं वातस्य, तत्रापि पक्वाधानं विशेषतः।। (अ.ह. सू. 12/1)

अष्टाङ्ग संग्रह में वाग्भट ने नाभि के नीचे वात का स्थान बताया है।

ते व्यापिनोऽपि हृन्नाभ्योरधोमध्योर्ध्वसंश्रयाः॥ (अ.सं.सू. 1/25)

नाभि से नीचे के अवयव, अस्थि एवं मज्जा को काश्यप संहिता में वात के स्थान बताये हैं।

‘अधोनाभ्यस्थिमज्जानौ वातस्थानं प्रचक्षते ।’

वात के गुण

रुक्षः शीतो लघुः सूक्ष्मश्चलोऽथविशदः खरः। (च. सू. 1/59)

रुक्ष, शीत, लघु, सूक्ष्म, चल, विशद एवं खर ये 7 गुण पाये जाते हैं।

इन गुणों में रुक्ष गुण सर्व प्रधान है। चरकादि सभी आचार्यों ने इस गुण को बात का प्रमुख गुण माना है। यह स्निग्ध का विरोधी है, देह की अन्दर एवं बाहर की स्निग्धता को कम करने का काम करता है एवं श्लेष्मा द्वारा सम्भावित अति स्निग्धता को रोकने का कार्य करता है।

वात का दूसरा गुण शीत है यह पित्त के उष्ण गुण का विरोधी (Against) है। शीत गुण असंयुक्त अर्थात्स्व तंत्र वात का गुण है। नैदानिक दृष्टि से वात योगवाही है, अर्थात् अपने साथ आ मिलने वाले दूसरे के गुणों को ग्रहण कर लेता है अर्थात् जब पित्त के साथ मिल जाता है, तो यह उष्ण एवं कफ के साथ मिलने पर शीत हो जाता है। जैसे ग्रीष्म ऋतु में उष्ण हवाएँ चलती है एवं शीत ऋतु में शीतल हवाएँ। यह शीत एवं उष्ण की तीव्रता को बढाने का कार्य करता है।

वात का तीसरा लघु गुण सभी चरकादि आचार्यों ने माना है। यह गुरु के विपरीत गुण है। यह शरीर में कफ के गुरु के विरुद्ध कार्य कर शरीर में लघुता उत्पन्न करता है एवं गुरु गुण को कम करने में सहायता प्रदान करता है।

वात के सूक्ष्म गुण का वर्णन सुश्रुत में नहीं मिलता बाकी आचार्यों ने वात में सूक्ष्म गुण बताया है। इस गुण के कारण वात स्रोतोगामी होता है। वात अपने सूक्ष्म गुण के प्रभाव से स्रोतसों के भीतर पहुँचकर गतिमूलक होने के कारण दोष धातु, मलों को गति प्रदान करता है। सूक्ष्म गुण श्लेष्मा के स्थूल गुण के विपरीत होता है।

वात में चल गुण पाया जाता है। चल गुण के कारण वायु स्वयं गतिमान होता है एवं दूसरों को गति प्रदान करता है।

“पित्तं पंगु कफ पंगु-~-।।” इस चल गुण के कारण ही वात दोष ही पित्त, कफ, धातुओं मलों को सक्रियता प्रदान करता है। यह कफ के स्थिर गुण के विपरीत होता है।

वात का विशद गुण श्लेष्मा के पिच्छिल गुण के विपरीत होता है यह गुण शरीर के अधिक क्लेद या चिपचिपाहट को दूर कर स्वस्थ बनाता है।

खर या परुष गुण मृदु का विरोधी है यह श्लेष्मा के अति मार्दव को कम करता है। अस्थियों की खरता या परुषता इसी गुण के कारण होती है।

उपर्युक्त सभी गुणों में बात का चल गुण ही स्वस्थ शरीर में सबसे अधिक प्रकट होता है। यह चल गुण के कारण ज्ञान, गमन एवं प्राप्ति आदि कार्यों को सम्पन्न कराता है।

प्राकृत वात के उपर्युक्त गुण स्वस्थ शरीर के भीतर रहकर पित्त एवं कफ के सहयोगी रहकर एक दूसरे के गुणों को सीमित एवं नियन्त्रित करते हैं जिससे इनके परस्पर विपरीत गुण संतुलित रहते हुए शरीर में स्वास्थ्य की प्राकृत स्थिति बनी रहती है। इसको निम्नलिखित प्रकार से समझा जा सकता है।

1. वात का रुक्ष गुण –

  • कफ के स्निग्ध गुण को सीमित करता है।
  • त्वचा की अति स्निग्धता को हटाता है।
  • शरीर की स्निग्धता (कोलेस्ट्रोल आदि स्नेहो को) को कम करता है।

2. शीत गुण – पित्त की उष्णता, दाह को कम करता है।

  • तापमान नियन्त्रित करता है।
  • क्षुधा, पिपासा आदि अग्नि कर्म (Catabolic function) को कम करता है।

3. लघु गुण :- गुरु गुण को मर्यादित करता है।

  • शरीर भार वृद्धि को रोकता है।
  • लघुता एवं स्फूर्ति प्रदान करता है।

4. चल गुण :- मन एवं इन्द्रियों को क्रियाशील बनाता है।

  • अनेक अवयव जैसे हृदय, फेफेडे आदि की क्रियाओं को सम्पन्न कराना।
  • पाचन संस्थान की गति (Movement) की क्रियाओं को करवाना।

5. खर या पुरुष गुण :- अस्थि, दंत, नख आदि पर्याप्त रूप से कठिन बने रहते है।

  • मनुष्य स्वभाव में कठोरता एवं दृढ़ता बनाये रखना।
  • दया, करुणा, ममता आदि भावनाएँ संतुलित एवं मर्यादित रहती है।

6. विशद गुण – विशद गुण के कारण संधियों एवं शरीरावयवों में गति बिना रुकावट के सम्पन्न होती रहती है।

  • मानसिक विशदता के कारण मनुष्य स्पष्ट विचारों वाला होता है।

प्राकृत वायु के कर्म

प्राकृत वात अपने चल गुण के कारण अत्यधिक व्यक्त होता है। यह गुण कफ के स्थिर गुण को स्वास्थ्य के अनुकूल कमजोर करते हुए शरीर को चलता प्रदान कर सक्रिय बनाता है एवं विषाद (Depression) से बचाने का कार्य करता है। वात के प्राकृत गुणों के कारण शारीरिक एवं मानसिक क्रियाएँ सम्पन्न होती है।

शार्ङ्गधर मतानुसार :-

पित्तं पंगु कफः पंङ्गु पङ्गवो मल धातवः।
वायुना यत्र नीयन्ते तत्र गच्छन्ति मेधवत्॥ (शा. प्र. 5/22)

अर्थात् वात के निष्क्रिय होने पर पित्त एवं कफ पंगु (निष्क्रिय) (Inactive) होते हैं। मल एवं धातुओं में पंगुता आ जाती है। जिस प्रकार वायु मेध को जहाँ चाहे वहाँ ले जाती है वैसे वात जब सम अवस्था में रहती है तब दोष धातु एवं मलों के सामान्य कर्म एवं गति होती है एवं विकृत होने पर इनमें विकृति निश्चित है।

उत्साहोच्छवासनिःश्वास चेष्टाधातुर्गतिसमा।
समोमोक्षो गतिमतां वायो कर्माविकारजम्।। (च.सू. 18/55)

अर्थात् उत्साह, उच्छवास, निश्वास, चेष्टा, धातुओं को सम रखना एवं मलों का मोक्षण वायु के प्राकृत कर्म है।

  1. उत्साह (Enthusiasm) – उत्साह का अर्थ हौसला, ऊर्जा, बल या शक्ति से लेना चाहिए। अंग्रेजी शब्द (Energetic, Papiness, firmness, couarge, determination, persererance) अर्थ में लेना चाहिए। 2. उच्छ्वास (Inspiration) :- वायुमण्डलीय वायु को नासा या मुख द्वारा अंदर ग्रहण की क्रिया करना। यह क्रिया बिना Lungs एवं Alveoli के Movement के सम्भव नहीं है एवं ये Movement बिना वायु के सम्भव नहीं है।
  2. निश्वास (Expiration) :- Lungs के भीतर स्थित वायु को नासा या मुख द्वारा बाहर निकालना। 4. चेष्टा (Physical & Mental Activity) :- सभी Motor neurone की Activity इसके अन्तर्गत ली जा सकती है। इसके अंतर्गत Voluntary activity को लेना चाहिए। गतिविधि स्वाच्छक गोट बांध
  3. धातुगति समा (Equilibrium of dhatu (Body tissue) and involuntery activity of organs) :- Heart, Lungs, intestine Movements.
  4. मलो का मोक्षण (Proper excretion of waste product of body) :- मल, मूत्रादि विसर्जन में होने वाली क्रियाओं का कारण वात है।

सुश्रुतानुसार कार्य-

दोषधात्वग्निसमतां संप्राप्तिं विषयषु च।
क्रियाणामानुलोम्यं च करोत्यकुपितोऽनिलः।। (सु. नि. 1/10)

  1. दोष, धातु एवं अग्नि को सम रखना (Homeostasis) (Adjustment and adaptation in re- sponse to stresses & enviorment)
  2. सम्प्राप्ति विषयषु च – इन्द्रियों के अर्थों को ग्रहण करना (Perception of sense organ’s objects)
  3. क्रियाणामनुलोम्य च – चयापचय की क्रियाओं को सामान्य बनाना जैसे श्वसन, रक्तवह स्रोतस, पाचनादि संस्थान आदि के कार्यों को सामान्य बनाना।

अष्टाङ्ग हृदय मानुसार प्राकृत वायु के कार्य :

उत्साहोच्छ्वासनिःश्वासचेष्टावेगप्रवर्तनैः।
सम्यग्गत्या च धातूनामक्षाणां पाटवेन च।। (अ. ह. सू. 11/1-2)

प्राकृत वात उत्साह, उच्छ्वास, निःश्वास, समस्त प्रकार की चेष्टा, मल मूत्रादि का बाहर निकालना, धातुओं को सम बनना एवं नेत्रादि इन्द्रियों के कार्य में दक्षता प्रदान करती है।

वात के भेद एवं विशिष्ट कर्म (Types of Vata & Their Functions)

एक ही बात सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त होकर विभिन्न कार्यों को सम्पादित करती है किन्तु स्थान एवं कार्य भिन्नता से इसको पाँच वर्गों में विभाजित किया गया है :-

  1. प्राणवायु
  2. उदान वायु
  3. समान वायु
  4. व्यान वायु
  5. अपान वायु

प्राणोदानसमानाख्यव्यानापानैः स पञ्चधा।
देहं तन्त्रयते सम्यक् स्थानेष्वव्याहतश्चरन् ।। (च. चि. 28/5)

वेदों में पाँच अन्य प्रकार की वायुओं का वर्णन मिलता है-

उद्गारे नाग आख्यातः कूर्म उन्मीलने स्मृतः ।
कृकरः क्षुत् कृज्ज्ञेयो देवदत्तो विजृम्भणे।।
विजृम्भणे न जहातिमृतं चापि सर्वव्यापि धनञ्जयः।

वायु का नामकर्म
1.नागडकार निकालना।
2.कूर्मपलकों को खोलना/बंद करना।
3.कृकलछींक लेना।
4.देवदत्तजम्भाई लेना।
5.धनंजयसर्व शरीर में व्याप्त। मृत शरीर में 4 घंटे तक रहती है।
सुख-दुःख का ज्ञान जीव को कराती है।

प्राण वायु

पाँच वायुओं में प्राण वायु का स्थान प्रमुख है। यह प्राणियों के प्राणों का आधार है एवं मनुष्य का जीवन इसी वायु पर आधारित है।

स्थानं प्राणस्य मूर्धोरः कण्ठजिह्वास्यनासिकाः।
ष्ठीवनं क्षवथूद्गारश्वासाहारादि कर्म च। (च.चि. 28/6)

प्राणवायु के स्थान – मूर्धा (शिर), उरः स्थल (Thorax, Lungs, Heart), कण्ठ (Throat), जिह्वा (Tongue), मुख, नासिका है।

प्राण वायु के कर्म –

  • ष्ठीवन (थूकना) (Splitting)
  • क्षवथु (छींक आना) (Sneezing)
  • उद्गार (डकार का आना) (Burp)
  • श्वसन कर्म (Respiration)
  • आहारादि को निगलने की क्रिया (Deglution)

उरः कण्ठचरों बुद्धि हृदयेन्द्रियचित्तधृक् ।
ष्ठीवनं क्षवथूद्गारनिःश्वासान्त्रप्रवेशकृत् ।। (अ. ह. सू. 12/4)

  • प्राण वायु मस्तिष्क में रहता है।
  • उरः प्रदेश एवं कण्ठ प्रदेश (Thorax and throat) में विचरण करता है।

कार्य –

  • बुद्धि धारण (Supports mind & intelligence)
  • हृदय धारण (Supports heart)
  • इन्द्रिय धारण (Supports sense organs)
  • प्रतिवर्तजन्य क्रियाओं को करना (थूकना, छीकना, उद्गार आदि) (Attends to expectoration, sneezing, bleching, inspiration etc.)

श्वासादि क्रियाओं का सम्पादन

1. बुद्धि धारण

ग्राह्य- अग्राह्य, कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य आदि में भेदकर निश्चयात्मक बुद्धि को उत्पन्न कर सम्यक् ज्ञान कराने वाली प्राण वायु मस्तिष्क में पायी जाती है।

2. इन्द्रिय धारण

  • प्राणवायु मस्तिष्क में रहकर ज्ञानेन्द्रियों के शब्द, स्पर्शादि अर्थों को ग्रहण कराती है।
  • कर्मेन्द्रियों के कार्यों को नियन्त्रित रूप से सम्पादित कराने का कार्य प्राण वायु कराती है।
  • मन के कार्य चिन्त्य, विचार्य, उह्य, ध्येय, संकल्पादि कर्मों को सम्पादित कराती है।

3. हृदय धारण

प्राणवायु मस्तिष्क में रहती है एवं कण्ठ एवं उरः प्रदेश में विचरण करती है अर्थात् Heart एवं Lungs के कार्यों को सम्पादित करती है। Heart एवं Lungs के Contraction एवं Relexation आदि गति सम्भवतः प्राणवायु के द्वारा सम्पन्न होती है।

4. श्वासोच्छ्वास कर्म

नाभिस्थः प्राणपवनः स्पृष्ट्वा हत्कमलान्तरम्। कण्ठाद्बहिर्विनिर्याति पातुं विष्णुपदामृतम्।।
पीत्वा चाम्बरपीयूष पुनरायाति वेगतः। प्रीणयन्देहमखिलं जीवं च जठरानलम्॥ (शा. पू. 5/48-49)

अर्थात् नाभिस्थित प्राणवायु हृदय कमल को स्पर्श करती हुई, विष्णु के चरणों के अमृत का पान करने (आक्सीजन + नाइट्रोजन से युक्त वायुमण्डलीय वायु) के लिए कण्ठ मार्ग से बाहर निकलती है। अम्बर पीयूष (नाईट्रोजन युक्त ऑक्सजीन) को पीकर फिर उसी मार्ग से अंदर आती है एवं सम्पूर्ण शरीर का प्रीणन तथा जठराग्नि को प्रदीप्त करती है।

1. नाभिस्थ प्राणपवन :- नाभि को अग्नि का स्थान माना है एवं जहाँ पाक प्रक्रिया होती है वहाँ ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है एवं कार्बनडाइऑक्साइड का निर्माण होता है। वहाँ की वायु में कार्बनडाइऑक्साइड की अधिकता होती है। वही वायु (Deoxygenated Air) हृदय कमल को स्पर्श करती हुई कण्ठ मार्ग से निकलती है।

Organ blood – Superior venacava & inferior vena cava → heart → Lungs → से वायु Nostril के द्वारा बहार निकलती है।

2. विष्णुपदामृत :- विष्णु भगवान का निवास स्वर्ग है एवं उनके चरण वायु मण्डल में है, इसलिए विष्णु के
पादों का अमृतपान शब्द प्रयुक्त हुआ है।

3. Respiratory centre DRG, VRG, Apneustic centre & pneumotatic centre को प्राण वायु के क्षेत्र माने जा सकते हैं।

5. प्रतिवर्त जन्य क्रिया (Reflex actions) –

उरः, कण्ठ, नासिकादि प्रदेशों में स्थित रहकर प्राणवायु थूकना, छींकना, उद्गार, वमन, अन्न ग्रहण आदि प्रतिवर्तजन्य क्रियाओं को सम्पन्न कराती है।

संक्षेप में उरः प्रदेश, मुख, मस्तिष्क, नासिका आदि तक क्रियाशील शरीर स्थित वायु को प्राणवायु कहा जाता है इसके प्रमुख स्थान हृदय और मस्तिष्क है। यह Cerebrum, Cerebellum, Spinal cord, Heart, Lungs, Mouth, Esophagus आदि अवयवों में संचार करती है।

इसका प्रभाव मस्तिष्क एवं सुषुम्ना से सम्बन्धित वातवह संस्थान (Nervous system), रक्तवह संस्थान (Circulatory system) एवं प्राणवह संस्थान (Respiratory system) पर होता है।

  1. यह वायु ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय एवं मन के कार्यों को सम्पादित कराती है।
  2. श्वसन प्रक्रिया सम्यक् प्रकार से होती है।
  3. अन्न ग्रहण (Degulation) कराने में सहायता प्रदान कराती है।
  4. नाडीगति को स्थिर एवं व्यवस्थित करती है।
  5. थूकना, छीकना, डकार लेना आदि प्रतिवर्त क्रियाओं को सम्पन्न कराती है।

उदान वायु (Vata Located in Pharynx & Larynx)

1. स्थान –

  • ऊपर की ओर गति करती है। उरः प्रदेश में स्थित रहती है।
  • नासा नाभि एवं गले (Nose, Umblicus & throat) में विचरण करती है।

2. कार्य :-

  • बोलना, गाना (वाणी की प्रवृत्ति में विभिन्न अङ्ग-प्रत्यङ्गों को गति प्रदान करना)
  • प्रयत्न (Efforts)
  • ओज, बल एवं वर्ण को सामान्य बनाये रखना।

3. रोग- ऊर्ध्वजत्रुगत रोगों का कारण होती है। यथा- –

उदानो नाम यस्तूर्ध्वमुपैति पवनोत्तमः ।
तेन भाषितगीतादि विशेषोऽभि प्रवर्ततेते ॥
ऊर्ध्वजत्रुगतान् रोगान् करोति च विशेषतः। (सु. नि. 1/14-15)
उरः स्थानुदानस्य नासा नाभिगलांश्चरेत्।
वाक्प्रवृत्ति प्रयत्नोजो बलवर्णस्मृति क्रियः॥ (अ. ह. सू. 12/5)

उदानस्य पुनस्थानं नाभ्युरः कण्ठ एवं च।
वाक्प्रवृत्तिः प्रयत्नौजो वलवर्णादि कर्म च ।। (च. चि. 28/7)

उदान वायु के स्थान एवं कार्य

आचार्य का नामस्थानवायु के स्थान एवं कार्य
चरकनाभि (Umblicus)
उरः (Thorax)
कण्ठ (Throat- Pharynx, larynx)
वाक् प्रवृत्ति (Voice production)
प्रयत्न (Efforts)
उत्साह (Energetic)
ओज (Immunity)
सुश्रुतऊर्ध्व की ओर गति वाली अर्थात् उरः एवं कण्ठ में विचरण करने वालीभाषण
गायन
वाग्भटस्थान-वक्षःस्थल (Thorax)वाक् प्रवृत्ति (Voice production)
अ. हृदयविचरण-नासा, नाभि एवं गले में।वाक् प्रवृत्ति (Voice Productioon)
ओज, (Immunity)
बल (Stamina to body & mind),
वर्ण (Lusture), स्मृति (Memory) को बनाये रखना।

वाक् प्रवृत्ति (Mechanism of Speech)

उदान वायु का मुख्य कार्य स्वरोत्पत्ति व वर्णोच्चारण बताया गया है। उदान वायु की शक्ति से महाप्राचीरापेशी (Diaphrgm) ऊपर की ओर गति करती है। उदर (Abdomen) एवं वक्ष (Thorax) की पेशियों में संकोच होता है। जिससे फेफडों (Lungs) की वायु ऊपर गति करती हुई कण्ठ में स्थित स्वरयंत्र (Larynx) के Vocal cords में गति उत्पन्न कर शब्दोत्पत्ति करती हैं।

शब्दोत्पत्ति या वाणी प्रवृत्ति (Mechanism of speech) कर्मेन्द्रिय का कार्य हैं। शब्दादि ज्ञानेन्द्रियों के कार्य से भिन्न हैं शब्दादि ज्ञान आत्मा – मन – इन्द्रिय + विषय के संयोग एवं चक्षु आदि बुद्धियों के द्वारा ज्ञान होता है किन्तु शब्दोत्पत्ति ज्ञानोत्पत्ति के पश्चात् की जाने वाली चेष्टा है।

वाक् प्रवृत्ति 100 मिलियन से अधिक न्युरान एवं स्वरयंत्र की क्रियाओं (Mechanism of larynx) का परिणाम होता है। Thus speech is produced by vibration of vocal cords at laryngeal level एवं Vocal cords के Vibration neuron के निर्देशन (Commond) में होते हैं। इस प्रकार नियन्त्रित केन्द्र (Controlling centre) एवं Working centre जिन्हें Central एवं Express centre कहते है। सबसे पहिले बुद्धि (Central nervous system) में ज्ञानोत्पत्ति होती है एवं बुद्धि द्वारा Motor Activity के निर्देश Peripherial speech apparetus (Larynx, tongue, lips) तक पहुँचते है। इसके पश्चात् Tongue, Lips, Larynx, Vocol Cords में से समन्वयात्मक (Cordination Movement) गति से शब्दोत्पत्ति होती है।

समान वायु (Abdomen Vata)

समान वायु अग्नि को बल प्रदान करती है। पाचकाग्नि, भूताग्नि एवं धात्वाग्नि तीन प्रकार की अग्नियाँ होती है।

  • आमाशय एवं पक्वाशय के मध्य – जठराग्नि
  • आहार द्रव्यों में – भूताग्नि
  • धातुवह स्रोतसों में – धात्वाग्नि

समान वायु – स्वेदवह स्रोतस्, दोषवह स्रोतस् एवं अम्बुवह स्रोतस् में समान वायु स्थित रहती है। यह समानवायु जठराग्नि के पार्श्व में स्थित हो अग्नि को बल प्रदान करती है।

स्वेददोषाम्बुवाहीनि स्रोतांसि समधिष्ठितः।
अन्तरग्नेश्च पार्श्वस्थः समानोऽग्निबलप्रदः । (च. चि. 28/8)

आचार्यस्थानकर्म
चरक
च. चि. 28/8
स्वेदवहस्रोतस्
दोषवह स्रोतस्, अम्बुवह स्रोतस्,
अन्तराग्नि के पार्श्व में।
जठराग्नि को बल प्रदान करना।
सुश्रुत
सु. नि. 1/16
जठराग्नि के साथ आमाशय एवं पक्वाशय में गति करता है।आहार पाचन, रस, दोष, मल, मूत्र को पृथक करती है। गुल्म, अतिसार, मंदाग्नि आदि रोगों का कारण।
अष्टाङ्ग हृदय
सू. 12/8
जठराग्नि के समीप
अर्थात् ग्रहणी (Duodenum) में, सम्पूर्ण कोष्ठ में विचरण (Stomach to Small intestine) करती है।
अन्न ग्रहण करना
अन्न पाचन करना
सार एवं किट्ट को अलग- अलग करना।
मूत्र, पुरीषादि मलों को निर्हरण।

समानोऽग्निसमीपस्थः कोष्ठे चरति सर्वतः।
अन्नं गृह्णाति पचति विवेचयति मुञ्चति।। (अ. ह. सू. 12/8)

आमपक्वाशयचरः समानो बह्निसंगतः।
सोऽन्नं पचति तज्जांश्च विशेषान्विविनक्ति हि।।
गुल्माग्निसादातिसार प्रभृतीन कुरुते गदान।। (सु.नि. 1/16)

समान वायु के उपर्युक्त कर्मों को निम्न प्रकार से समझ सकते हैं –

1. अन्न ग्रहण- इसके अंतर्गत अन्न धारण को भी लेना चाहिए। यह समान वायु की वह प्रक्रिया जिसमें भोजन विभिन्न आशयों में निश्चित समय तक रहता है। आमाशय (Stomach) में पाये जाने वाली Recptive Relexation के कारण आमाशय (Stomach) में बिना तनाव उत्पन्न किये संग्रहित रहता है।

मुख से आमाशय तक भोजन प्राणवायु के कारण गति करता है। उसके पश्चात् आमाशय से छोटी आंत्र (Small intestine) तक भोजन समान वायु के द्वारा गति करता है एवं इसके पश्चात् अपान वायु अपना कार्य करती है। आधुनिक मतानुसार इस प्रकार तुलना कर सकते हैं-

Degultition

प्राण वायु की गति के कारण सम्पन्न होते हैं।

  • Upper esophageal sphincter opening
  • Lower esophageal sphincter opening
  • Food Reached in stomach

Stomach to Small intestine

आयुर्वेदानुसार ये कार्य समान वायु के द्वारा सम्पन्न होते है।

  • Hunger Contractions
  • Receptive relexation
  • Peristalsis movement

Small intestine to Large intestine

ये कार्य अपान वायु द्वारा सम्पन्न होते है।

  • Mass peristalsis
  • Segmentation movement
  • Defecation

2. अनं पचति :- समान वायु पाचक पित्त को उत्प्रेरित करती है। अर्थात् पाचक पित्त + समान वायु जठराग्नि का कार्य करते हैं। आधुनिक विज्ञान के अनुसार पाचन का कार्य Enzmes के द्वारा सम्पन्न होते हैं। एन्जाइम का Secretion एवं इनका Active होना पाचन के लिए आवश्यक है तथा समान वायु जब पित्त का संधुक्षण करता है, तब ही पाचन होता है। अर्थात् समानवायु की उत्तेजना के परिणामस्वरूप Digestive enzymes के secretion बढ जाते है एवं ये निष्क्रिय एन्जाइम सक्रिय हो जाते है, कहा भी गया है समानेनावधतोऽग्निरुदर्यः प्रवनेन तु। (च. चि. 15/6)

3. अन्न विवेचन :- पाचन के उपरान्त आहार को सार एवं किट्ट में विभाजन करने का कार्य ग्रहणी (Duodenum) में सम्पन्न होता है। यह कार्य समान वायु की सहायता के बिना असम्भव है।

रसस्तु हृदयं यातु समान मरुतेरितः ।
रञ्जितः पाचितस्तत्र पित्तेनायाति रक्तताम्।। (शा. प्र. 6 / 8)

4. मुंचन कर्म :- समान वायु आहार पाकजनित एवं धातु पाक जनित दोनों प्रकार के मलों का अपने-अपने स्रोतसों में पहुँचाने के लिए विभिन्न अवयवों में गति प्रदान करती है।

समान वायु के कार्यों की क्रियाविधि

समान वायु की क्रियाएँ अनैच्छिक (Involuntary) एवं निरन्तर होती है। आहार सेवनोपरान्त इस वायु के कार्यों की प्रकर्षता बढती है। जैसा कि Gastric Phase में होता है। Gastric phase में Enzymes के Secretion अत्यधिक बढ जाते है एवं ये एन्जाइम सक्रिय भी होते हैं।

इस वायु के सम्बन्ध में दूसरा यह महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि समान वायु आहार के पाचन का कार्य करती है। दहन एवं पचन की सम्पूर्ण क्रियाओं को यह वायु सम्पूर्ण शरीर में बनाये रखने में सहायता प्रदान करती है। अर्थात् Metabolism में यह वायु सहायक होती है। यह वायु दोषवह स्रोतस्, अम्बुवह स्रोतस् एवं स्वेदवह स्रोतस् में अवस्थित सम्पूर्ण शरीर के Metabolism में सहायता प्रदान करती है।

अग्नि संधुक्षण :-

1. समान वायु अग्नि को बढाने (Stimulate) का कार्य करती है। आधुनिक मतानुसार इस प्रकार समझ सकते है-

समान वायु (Vagus nerve) → Stimulate पाचक पित्त (Digestive enzymes) = Digestion & Metabolism occurs

Various factors stimulate → Inactive Enzymes→ Convert active form of enzymes

After intake of food→ Strech receptors stimulate→ Spate of scrections occurs.

व्यान वायु

देहं व्याप्नोति सर्वं तु व्यानः । (चरक)

  • व्यान वायु सम्पूर्ण शरीर में स्थित रहती है।
  • अष्टाङ्गहृदयकार के अनुसार हृदय इसका प्रमुख स्थान होता है।
  • यह शीघ्र गति करने वाली वायु होती है।

विक्षेपण अर्थात् फेंकना (Ventricle से Blood को Aorta & Pulmonary artery में फेंकना)

व्यानेन रस धातुर्हि विक्षेपोचितकर्मणा।
युगपत्सर्वतोऽजस्रं देहे विक्षिप्यते सदा।। (च. चि. 15/35)

विक्षेप के अतिरिक्त यह वायु गति (Motor activity चलना, दौडना आदि), प्रसारण (अङ्गों को फैलाना), आक्षेप (सुकोडना, फेकना, दूर हटाना), निमेष (पलकों को बंद करना आदि क्रियाएँ व्यान वायु के द्वारा सम्पन्न होती है।

विभिन्न आचार्यों के अनुसार व्यान वायु

आचार्यस्थानकर्म
चरक
च. चि. 28/7
च. चि. 15/35
सम्पूर्ण शरीरशीघ्र गति करने वाला
गति, प्रसारण, आक्षेप,
निमेषादि क्रियाएँ
रस संवहन
सुश्रुत
सु. नि. 1/16
सम्पर्ण शरीर में विचरण।रससंवहन, रक्त विस्रावण, स्वेद निष्कासन, पांच प्रकार की चेष्टा, गति, अपक्षेपण, उत्क्षेपण निमेष, उन्मेष को सम्पन्न करना।
अष्टाङ्ग हृदय सू. 12/6हृदय प्रमुख स्थान।
सम्पूर्ण शरीर कार्य क्षेत्र।
शरीर में होने वाले समस्त
चेष्टा, गति, उत्क्षेपण,
अपक्षेपण, निमेष, उन्मेष

देहं व्याप्नोति सर्वं तु व्यानः शीघ्रगतिर्नृणाम्।
गति प्रसारणाक्षेप निमेषादि क्रियः सदा।। (च. चि. 28/9)

कृत्स्नदेहचरो व्यानो रससंवहनोद्यतः।
स्वेदासृक्स्रावणाश्चापि पञ्चधा चेष्टयत्यपि।। (सु. नि. 1/17/18)

व्यानो हृदि स्थितः कृत्स्नदेहचारी महाजवः ।
गत्यपक्षेपणोत्क्षेपनिमेषोन्मेषणादिकाः ॥
प्रायः सर्वाः क्रियास्तस्मिन् प्रतिबद्धाः शरीरिणाम्।। (अ.हृ.सू. 12/6-7)

व्यान वायु के कार्यों की कार्यविधि

व्यान वायु के कार्य मांसपेशियों के द्वारा सम्पन्न होते हैं। मांस पेशियाँ कार्य की दृष्टि से दो प्रकार की होती है।

  1. Involuntary muscle
  2. Voluntary muscle

1. Involuntary muscle को Automatic nerves system (ANS) Nerve Supply प्रदान करती है। ये मांसपेशियों ऐच्छिक रूप से नियन्त्रित नहीं होती है। Cardiac Muscle (हृद्वेशी) एवं Smooth Muscle (चिकनी पेशी) इस प्रकार की मांसपेशी होती है। हृदय, शिरा एवं धमनी में इसी प्रकार की Muscle एवं Nerve Supply पाई जाती है एवं जिनके Contraction एवं Relexation के कारण रस संवहन होता है। जिसे आधुनिकों ने Blood Circulation नाम दिया है। आयुर्वेदानुसार यह संवहन व्यान वायु के Contraction एवं Relexation के द्वारा ही सम्पन्न होता है।

2. Voluntary Muscle जिन मांसपेशियों को इच्छानुसार नियन्त्रित किया जा सके एवं जिनमें Somatic Nerve Supply प्रदान करती है उन्हें Voluntary muscle (Skeletal muscle) कहते है। इनके द्वारा होने वाले गति, उत्क्षेपण, अवक्षेपण आदि व्यान वायु के कार्य क्षेत्र है।

ऐच्छिक एवं अनैच्छिक दोनों प्रकार की मांसपेशियों से होने वाले कार्य व्यान वायु का कार्य क्षेत्र हैं। विस्तृत वर्णन के लिए आधुनिक क्रिया शारीर का अध्ययन करें।

अपान वायु

अपान वायु शरीर के अधोभाग में स्थित रहती है। यह श्रोणि (Pelvic region), बस्ति (Urinary Bladder), मेढ्र (Penis) उरु (Thigh) में विचरण करती है। यह मल, मूत्र, शुक्र, आर्तव एवं गर्भ को शरीर से बाहर निकालने वाली होती हैं।

अपानोऽपानगः श्रोणिबस्तिमेढोरुगोचरः। शुक्रार्तवशकृन्मूत्रगर्भनिष्क्रमण क्रियः।। (अ.हृ.सू. 12/9)
वृषणो बस्तिमेढ्रं च नाभ्युरुवंक्षणौ गुदम्। अपानस्थानमन्त्रस्थः शुक्रमूत्रशकृन्ति च।
सृजत्यार्तवगर्भी च युक्ताः स्थानस्थिताश्च ते। स्वकर्म कुर्वते देहो धार्यते तैरनामयः।। (च. चि. 28/10-11)
पक्वाधानालयोऽपानः काले कर्षति चाप्ययम्। समीरणः शकृन्मूत्रशुक्रगर्भार्त्तवान्यधः।। (सु. नि. 1/18)

अपान वायु

आचार्यस्थानकर्म
चरक
च. चि. 28/10-11
वृषण (Testis) वस्ति (Urinary blader) मेढू (Penis) नाभि (Umblicus) उरु (Thigh) वंक्षण (Groins) गुद (Anus) आन्त्र (Large Intestine)शुक्र, मूत्र, पुरीष, आर्तव गर्भ को उचित समय पर शरीर से बाहर निकालती है।
सुश्रुत
सु. नि. 1/18
पक्वाधान (Large Intestine)शुक्र, मूत्र, पुरीष, आर्तव गर्भ को उचित समय पर शरीर से बाहर निकालती है।
अष्टाम हृदय
स. 12/9
कटि से नीचे (Located in Pelvic region) श्रोणि, वस्ति, मेढू, उरु में विचरणमल, मूत्र, शुक्र एवं आर्तव एवं गर्भ का धारण/ निष्कासन

अपान वायु का कार्यक्षेत्र श्रोणिगुहा अर्थात् Pelvic Cavity होता है। Pelivic cavity में मूत्राशय, मलाशय, गर्भाशय, वृषण (Testis) आदि अवयव पाये जाते हैं। मूत्राशय में मूत्र का संग्रह एवं यथोचित समय अर्थात् लगभग 300 से 400 ml संग्रहोपरान्त मूत्र का उत्सर्जन कराने में, मलाशय में पुरीष (Stool) का संग्रह कराना एवं यथोचित समय इसका उत्सर्जन करना ठीक इसी प्रकार गर्भ धारण करना एवं समय आने पर शरीर से बाहर निकालना आदि कर्मों को अपान वायु सम्पादित करती है।

आधुनिक मतानुसार मूत्रोत्सर्जन एक प्रतिवर्त क्रिया है। जब वस्ति में मूत्र का संग्रह 300-400 मि. ली. हो जाता है तब वस्ति का भित्ती (Wall of urinary bladder) में खिंचाव के परिणाम स्वरूप प्रतिवर्त क्रियाएँ होती है। वस्ति की भित्ति पर strech Receptors होते हैं। जब वस्ति मूत्र से भर जाती है एवं वस्ति का दाब बढ़ जाता है तब Strech receptors stimulate होते हैं जिनसे Sensory impulse pelvic parasymathetic nerve के द्वारा Spinal cord की Sacral segment तक पहुँचते हैं इसके उपरान्त Motor impulses pelvic nerve के द्वारा Bladder एवं Internal sphincter तक पहुँचते हैं। जिससे detrusor muscle में Contraction एवं Internal sphincter में Relxation होता है। इस प्रकार मूत्र वस्ति से मूत्रमार्ग (Urethra) द्वारा बाहर आता है।

Mass peristaltic movement RUTH (Faecal matter) Sigmoid Pelvic colon आता है। जब कुछ Faeces mass peristaltis के कारण Rectum में आता है तब Defecation की Desire उत्पन्न होती है अथवा Intrarectal pressure 20-25 cm H, O हो जाता है तब Defecation Desire उत्पन्न होती है। Defecation का कार्य Voluntary mechanism होता है। Defecation का Centre hypothalmus एवं Spinal cord के Lower lumber एवं Upper sacral segment में होता है।

प्रथम एवं द्वितीय Lumber segment of spinal cords से निकलने वाली Sympathetic rhythmic impulse genital organs में होकर गुजरती है तब इन Impulse के कारण Testis, epididymis एवं ductus deferens में Peristaltis movement के कारण शुक्राणु गति कर मूत्रप्रसेक से बाहर आते हैं। इसके साथ-साथ Peristaltic contraction के कारण Seminal एवं Prostatic fluid spermatozoa के साथ बाहर आता है। गर्भाशय को Parasymathetic nerve, nerve आपूर्ति प्रदान करती है। ये S-2, S-3 एवं S 4 के द्वारा सम्पन्न होती है। इस प्रकार गर्भ धारण, गर्भ निष्कासन होता है।

वात के प्रकार, स्थान एवं कर्म

वात का नामस्थानकर्म
प्राण वायुमूर्धा (Brain), उरः स्थल (Thorax), कण्ठ (Throat), जिह्वा (Tongue), नासिका (Nose)ष्ठीवन (Splitting) 2. क्षवथु (Sneezing) 3. उद्गार (Bleching) 4. आहार निगरण (Deglutation) 5. श्वासादि क्रिया (Respiration) 6. बुद्धि धारण 7. हृदय धारण 8. प्रतिवर्त क्रियाएँ (Reflex Action)
उदान वायुनाभि (Umblicus), उरः प्रदेश (Thorax), कण्ठ (Throat region)वाक् प्रवृत्ति (Speech)
प्रयत्न (Motor Activity)
ओज-(Immunity)
समान वायुआमाशय एवं पक्वाशय के मध्य में, स्वेदवह दोषवह, अम्बुवह1. जठराग्नि को प्रदीप्त कराना। 2. आहार पाचन कराना। 3. आहार ग्रहण कराना। (Stomach से Small intestine में पहुँचाना) 4. सार किट्ट का पृथक्करण 5. मुंचन कर्म (Intestine empting)
उदान वायुसम्पूर्ण शरीर में विशेषत- हृदय मेंरस संवहन 2. रक्त विस्रावण 3. स्वेद निष्कासन 4. गति – उत्क्षेपण, अपक्षेपण, उन्मेष, निमेषादि क्रिया
अपान वायुकटि प्रदेश (Pelvic Region)मूत्र, पुरीष, शुक्र, आर्तव एवं गर्भ धारण करना एवं का उचित समय पर निष्कासन

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