रस धातु (Rasa Dhatu) – कार्य, रस क्षय, रस वृद्धि के लक्षण

by DR. HAMID HUSSAIN
रस धातु (Rasa Dhatu) - कार्य, रस क्षय, रस वृद्धि के लक्षण

व्युत्पत्ति एवं निरुक्ति :- रस गतौ धातु से रस शब्द बना है जिसका तात्पर्य है जो निरंतर गतिशील रहे, उसे रस कहते हैं।

तत्र रस गतौ धातुः अहरहर्गच्छतीत्यतो रसः। (सु. सू. 14/113)

अर्थात् रस गतौ धातु से रस धातु बना है जिसका तात्पर्य जो निरन्तर (रात्रि-दिन में) गतिशील रहे उसे रस कहते हैं।

रस शब्द एक व्यापक शब्द है।

  1. आस्वाद्ये रसनेन्द्रियग्राहो’ से मधुरादि 6 रसों का ज्ञान होता है।
  2. रसशास्त्र में रस शब्द से पारद अभीष्ट होता है।
  3. संस्कृत वाङ्मय एवं आयुर्वेद में रस शब्द से अनेक द्रव्यों का ग्रहण किया जाता है जल, द्रव, निर्यास, मधुरादि षड्रस, शृंगारादि नवरस, आहार के परिणाम के पश्चात् निर्मित सूक्ष्म अन्नरस जो सभी धातुओं को पोषण करता है। वह अन्नरस एवं स्थाई रस धातु के लिए ग्रहण किया जाता है।

देहस्य भुक्तान्नादे प्रथम परिणामे सारे च। (वास्पत्यम्)

शरीर क्रिया विज्ञान में यहाँ रस से तात्पर्य अन्नरस एवं रस धातु के लिए प्रयुक्त है।

रस धातु (Rasa Dhatu) - कार्य, रस क्षय, रस वृद्धि के लक्षण

रस की परिभाषा एवं निर्माण

तत्र पाञ्चभौतिकस्य चतुर्विधस्य षड्रसस्य द्विविधवीर्यस्याष्टविधवीर्यस्य वाऽनेकगुणस्योपयुक्तस्याहारस्य सम्यक्प रिणतस्य यस्तेजोभूतः सारः परमसूक्ष्मः स रस इत्युच्यते । (सु.सू. 14/3)

अर्थात् पाँच भौतिक आहार (जिस आहार में पृथ्वी, जल, तेज, वायु एवं आकाश) पेय, लेह्य, भक्ष्य, प्रकार के आहार हो, जो मधुरादि छः रसों से युक्त हो, दो प्रकार का शीत एवं उष्ण वीर्य युक्त हो, शीत, उष्ण, स्निग्ध, रुक्ष, विशद एवं पिच्छिल वीर्य से युक्त हो अथवा जो गुर्वादि 20 गुणों से युक्त आहार हो, ऐसे आहार का विधि पूर्वक सेवन करने पर जठराग्नि की क्रिया के पश्चात् जो प्रसाद रूप से सूक्ष्म सार (Food Abstract) रस अर्थात्अ न्नरस होता है। यह समस्त धातुओं का पोषण करता है।

उपर्युक्त प्रकार का आहार आयुर्वेद मतानुसार संतुलित आहार है। ऐसे आहार के सेवन से ही अन्नरस का निर्माण होता है। यह अन्नरस ही समस्त धातुओं का पोषण करता है। आहार के पाचन के पश्चात् आहार दो भागों में विभाजित होता है-

  1. सार भाग
  2. किट्ट भाग

सार भाग अन्नरस होता है। इसी से रस आदि सात धातुओं की अग्नियों के पाक के पश्चात्, रसादि धातुओं का निर्माण होता है।

रस के दो भेद बताये है-

  1. स्थायी रस
  2. पोषक रस

पोषक रस :- अन्न रस होता है इसमें समस्त धातु, उपधातु एवं मलों के पोषकांश होते हैं।
स्थायी रस :- स्थायी रस, रस धातु होती है जो द्रव, शीत, मधुर, स्निग्ध एवं चल गुण युक्त होता है। यह आधुनिक मतानुसार Plasma एवं Interstitial fluid होता है।.

स तु द्रवः शीतः स्वादुः स्निग्धश्चलो भवेत्। (भा. पू. 3/135)

केदारि कुल्यान्याय के अनुसार रस धातु का निर्माण :- इस न्याय के अनुसार रस धातु का निर्माण अन्न रस के द्वारा होता है। जो क्षीर दधि न्याय Milk convert completely into curd के समान ही है। क्षीरदधि न्याय के रक्तादि धातु का निर्माण पूर्व धातुओं के द्वारा होता है किन्तु केदारी कुल्या न्याय के अनुसार सभी धातुओं का निर्माण अन्नरस के द्वारा होता है।

क्षीरदधि न्याय मात्र Chemical change (रासायनिक परिवर्तन) है। जबकि केदारी कुल्या न्याय में धातु निर्माण के साथ-साथ विसरण (Diffusion) द्वारा धातु पोषण भी बताया है।

खले कपोत न्याय :- इसके अनुसार प्रत्येक धातु रसाशय में जाकर स्वयं पोषकांश अन्नरस से ग्रहण करती है। जितनी दूर होगी उसको पोषण अंश पहुँचाने में उतना ही अधिक समय लगता है।

एककाल पोषण न्याय :- रस के साथ-साथ अन्य सभी धातुओं का पोषण अन्नरस के द्वारा एक साथ होता है।

तस्य च हृदयस्थानम् स हृदयाच्चतुर्विंशतिधमनीरनुप्रविष्योर्ध्वगा दश दश चाधोगामिन्यश्चतस्रश्च तिर्यग्गाः कृत्स्नं शरीरमहरहस्तर्पयति वर्द्धयति धारयति यापयति। (सु. सू. 14/3)

रस का स्थान हृदय है। वह 24 धमनियों अर्थात् दश अधोभाग में, दश ऊर्ध्वभाग में एवं चार तिर्यक् भाग में जाने वाली होती हैं। इन्हीं के द्वारा शरीर का तर्पण, वृद्धि, धारण एवं यापन कर्म दिन एवं रात्रि में होते हैं।

अर्थात् रस का स्थान हृदय एवं 24 धमनियों को माना है।

रस धातु का स्वरूप एवं संगठन

रस धातु पाँचभौतिक होती है, तथापि इसमें जल महाभूत की अधिकता पायी जाती है। इसलिए इसे आप्य कहते है। इसमें प्रोटीन आदि द्रव्य पार्थिव द्रव्य है। आप्य द्रव्यों में जल एवं वसा (फास्फोलिपिड, कोलेस्ट्रोल आदि) द्रव्य है। तैजस द्रव्य में विभिन्न रंजक द्रव्य एवं वायव्य द्रव्य में विभिन्न गैसे होती हैं एवं आकाशीय द्रव्य में इलेक्ट्रोलाइटस आते है।

  1. प्रोटीन – पार्थिव द्रव
  2. जल एवं वसा – आप्य द्रव्य
  3. रंजक द्रव्य – तैजस द्रव्य
  4. गैस – वायव्य द्रव्य
  5. इलेक्ट्रोलाइटस – आकाशीय

स तु द्रवः शीतः स्वादुः स्निग्धश्चलोभवेत्। (भा. पू. 3/135)

यह द्रव, शीत, मधुर, स्निग्ध, चल (निरन्तर गतिशील) होता है। रस को आप्य माना है। शरीर में रस धातु (रक्तरस (Plasma), लसीका (Lymph) एवं ऊतक द्रव (Tissue fluid) के रूप में पायी जाती है।

रस धातु के कर्म

व्यान वायु के द्वारा रस का संवहन होता है। यह संवहन ही सम्पूर्ण शरीर का तर्पण एवं पोषण करने वाला होता है। रस आप्य धातु है, इसलिए धातुओं के पोषकांश इसमें Solutes के रूप में पाये जाते है। जो रस द्वारा संवहन होकर समस्त धातुओं का पोषण करते है। पोषकांशों का संवहन बिना रस के नहीं हो सकता है इसीलिए समस्त धातुओं का निर्माण रस के द्वारा ही बताया गया है।

रसस्तुष्टिं प्रीणनं रक्तपुष्टिं च करोति। (सु. सू. 15/7)

रस शरीर की तुष्टि, प्रीणन एवं रक्त की पुष्टि करता है।

रस ही शरीर की स्थूलता एवं कृशता का कारण है। अर्थात् रस वृद्धि स्थौल्य का, रस क्षय कृशता एवं सम्यक्र सोत्पत्ति पुष्टशरीर का कारण होती है।

शरीर का पोषण करना रस धातु का प्रमुख कार्य है।

प्रीणनं जीवनं लेपः स्नेहो धारणपूरणे।
गर्भोत्पादश्च धातूनां श्रेष्ठ कर्म क्रमात्स्मृतः।। (अ. ह. सू. 11/4)

सात धातुओं के सात कर्म-

धातुकर्म
1.रस धातुप्रीणन (Nutrition)
2.रक्त धातुजीवन (Maintaining Vitality)
3.मांसधातुलेपन (Coating)
4.मेदस्निग्धता प्रदान करना (Provide Unctuous)
5.अस्थिधारण करना (To Provide support for body)
6.मज्जाअस्थियों का पूरण (Filling up bones)
7.शुक्रगभोत्पादन करना (Help in pregnancy)


रससंवहन

आयुर्वेद में रससंवहन का वर्णन किया है। आधुनिकों ने वहीं रक्त संवहन (Blood circulation) नाम दिया है। बिना रक्तरस (Plasma) के रक्त संवहन असम्भव है अतः रस संवहन कहना भी अनुचित नही है। यही रस सम्पूर्ण शरीर में परिसंचरित हो सम्पूर्ण धातुओं का पोषण करता है।

व्यानेन रसधातु हि विक्षेपोचित कर्मणा।
युगपत् सर्वतोऽजस्रं देहे विक्षिप्येत सदा।। (च. चि. 15/36)

धातुओं को विक्षेपित करने वाली व्यानवायु रसधातु को रक्त धातु के साथ सम्पूर्ण शरीर में, हमेशा (दिन एवं शात्रि को) विक्षेप (फेंकती या पहुँचाती) करती है। अर्थात् आयुर्वेद मतानुसार रस का संवहन व्यान वायु के द्वारा होता है।

रस संवहन तीन प्रकार से होता है-

  1. शब्दवत् रस संवहन- तिर्यक् संवहन
  2. अर्चिवत् रस संवहन – ऊपर की तरफ गति
  3. जल संतान वत् रस संवहन – पानी की तरह नीचे की ओर गति
  • शब्दवत् रस संवहन – इसे Systemetic circulation मान सकते है।
  • अर्चिवत्- इसे Pulmonary circulation मान सकते है।
  • जलसंतानवत्- इसे Renal Circulation मान सकते है।

स शब्दार्चिजलसंतानवदमुना विशेषेणानुधावत्येव शरीरं केवलम्। (सु. सू. 14/46)

रस धातु का प्रमाण 9 अंजलि माना है। एक सामान्य व्यक्ति की एक अंजलि 160 ml की होती है।

रसवह स्रोतस्र

रसवह स्रोतस् के मूल हृदय एवं रसवाहीनि धमनी है। जिनका वर्णन स्रोतस् के अंतर्गत किया जा चुका है।

रस क्षय का कारण-

लंघन या अपर्तपण –

  • उपवास करना।
  • अल्प भोजन करना।
  • संतुलित भोजन का न करना।
  • वातवर्धक आहार का सेवन।

परिश्रम अधिक

  • व्यायाम का अति सेवन।
  • मैथुन की अधिकता।

व्याधि

  • रात्रि जागरण करना।
  • जीर्ण व्याधि।
  • तीक्ष्णाग्नि (भस्मक रोग) (Hyper thyroidism, Diabetes आदि में)

मानसिक कारण- चिन्ता, क्रोध, लोभ, शोक, मोह आदि से ग्रसित होना।

रसक्षय के लक्षण :-

जरा सी चेष्टा करने पर हृदय में पीडा होना।

  • ऊँचे स्वर को सहन नहीं करना।
  • अल्प चेष्टा से हृदयगति बढना।
  • हृद्द्रव (Tachycardia/Palpitation) का होना or अचानक हृदय गति बढ़ना या घबराहट होना।
  • शरीर में कंपकंपी लगना या शून्यता का आना।
  • रुक्षता, श्रम, शोष एवं ग्लानि (किसी कार्य में मन न लगना), शब्दासहिष्णुता आदि।

धट्टते सहते शब्दं नोच्चैर्द्रवति शूल्यते।
हृदयं ताम्यति स्वल्पचेष्टस्यापि रसक्षये।। (च. सू. 17/64)

रसे रौक्ष्यं श्रमः शोषो ग्लानिः शब्दाऽसहिष्णुता।। (अ.हृ.सू. 11/17)

उपर्युक्त लक्षण कुपोषण होने के कारण उत्पन्न होते है। जब कोशिकाओं को पोषण नहीं मिलता है तब हृदय की गति कोशिकों को पोषण देने हेतु बढ़ती है।

चिकित्सा :-

  • संतर्पण चिकित्सा करनी चाहिए।
  • निदान परिवर्जन
  • रस के समान मधुर, शीत, स्निग्धादि पदार्थों का सेवन।
  • जीवनीय गण, काकोली, क्षीरकाकोली आदि का प्रयोग करना चाहिए। रस वृद्धि

कारण :-

  • संतर्पण की अतियोगता – गुरु, स्निग्ध, दही, आदि का अति सेवन।
  • अग्निमांद्य – अग्निमांद्य होने पर भी गुर्वादि स्निग्ध पदार्थों का अति सेवन।
  • दिवास्वप्न
  • व्यायाम न करना।

रस वृद्धि के लक्षण :-

  • हृदयोत्क्लेद या जी मिचलाना (Nausea)
  • प्रसेक (अधिक लालास्राव होना) (Excessive salivation)
  • अरोचक (Anoroxia)
  • अग्निसदन (Loss of Appetite)
  • आलस्य (Laziness or lethargy)
  • गुरुता (Heaviness)
  • शरीर का श्वेतवर्ण होना (White Discoloration)
  • शीतता (Chills) or (Feel of cold)
  • श्वास, कास, निद्रा की अधिकता Respiratory disorders, (Dyspnea/Asthma/cough) excessive sleep feeling आदि लक्षण|

रसोऽतिबृद्धो हृदयोत्क्लेदं प्रसेकं चापादयति। (सु.सू. 15/19)

श्लेष्माऽग्निसदन प्रसेकालस्य गौरवम्।
त्यशैत्यश्लथागत्वश्वासकासातिनिद्रताः
रसोऽपिश्लेष्मावत्।। (अ. ह. सू. 11/7-8)

रसो वृद्धि की चिकित्सा – लंघन / अपतर्पण चिकित्सा करनी चाहिए।

रसप्रदोषज विकार

वात, पित्त या कफ की विकृति के कारण रस के स्वरूप मे विकार उत्पन्न हो जाते है। जिसे रस प्रदोष विकार कहते है-

अश्रद्धा चारुचिश्चास्यवैरस्यमरसज्ञताः। हल्लासो गौरवं तन्द्रा साङ्गमर्दो ज्वरस्तमः।
पाण्डुत्वं स्रोतसां रोधः क्लैव्यं साद कृशङ्गता। नाशोऽग्नेरयथाकालं वलय पलितानि च।
रस प्रदोषजा रोगाः- -I (च. सू. 28/9-10)

  • अश्रद्धा (भोजन की ईच्छा न होना) (No interst in eating)
  • अरुचि (अन्न में स्वाद न आना) (No taste in food)
  • आस्य वैरस्य (मुख का स्वाद खराब होना) (Offensive taste)
  • अरसज्ञता (रस का ठीक प्रकार से ज्ञान न होना अर्थात् भोजन का ठीक नहीं लगना)
  • हृल्लास (उबकाई आना) (Nausea)
  • तन्द्रा (Drowsiness)
  • ज्वर (Fever)
  • पाण्डु (Anemia)
  • क्लैव्य (नपुंसकता) (Impotency)
  • अग्निमांद्य (Loss of Appetite)
  • गौरव (भारीपन) (Heaviness)
  • अङ्गमर्द (Body aches)
  • तम (आँखों के सामने अंधेरा आना) (Black out)
  • स्रोतसों में अवरोध (Obstruction in channels)
  • अङ्गों में शिथिलता (Lossness of body parts)
  • अङ्गों में कृशता (Weakness)
  • अकाल में शरीर में झुर्रिया पड़ना (Wrinkle time Before )
  • बालों का पकना (Air became white whithout time)

बल के ज्ञान हेतु सार परीक्षा करनी चाहिए। बल तीन प्रकार का होता है- उत्तमबल, मध्यम बल एवं हीन बल। अतः बल के मान के ज्ञान हेतु अष्टविध सार परीक्षा करनी चाहिए।

सारतश्चेति साराण्यष्टौ परुषाणां बलमानविशेषज्ञानार्थमुपदिश्यन्ते, तद्यथा त्वग्रक्त मांसमेदोऽस्थिमज्जशुक्र- सत्वानीति। (च. वि. 8/102)

बलमान ज्ञान हेतु आठ प्रकार के सार का उपदेश किया है। यह त्वक्सार, रक्तसार, मांससार, मेदसार, अस्थिसार, मज्जासार, शुक्रसार एवं सत्वसार आठ प्रकार का होता है।

त्वक्सार पुरुष के लक्षण :-

तत्र स्निग्धश्लक्ष्णमृदुप्रसन्नसूक्ष्माल्पगम्भीरसुकुमारलोमासप्रमेव च त्वक्साराणाम्। सा सारता सुख सौभाग्यैश्वर्योपभोग बुद्धिविद्यारोग्य प्रहर्षणान्यायुष्यत्वं चाचष्टे।। (च. वि. 8/103)

  • त्वक्सार पुरुष की त्वचा स्निग्ध, श्लक्ष्ण, मृदु एवं प्रसन्न रोग रहित होती है।
  • अल्प, गम्भीर, सुकुमार लोम होते हैं।
  • सुख (निरोगी), भाग्यवान्, ऐश्वर्यवान, उपभोग करने वाला होता है।
  • बुद्धिमान, विद्यावान, निरोगी, प्रसन्न रहने वाला, दीर्घायु होता है।

रस एवं कफ में सम्बन्ध

रस एवं कफ दोनों आप्य है। रस आश्रय है एवं कफ आश्रयी है। अतः दोनों में घनिष्ठ सम्बन्ध है।

(1) रस एवं कफ के क्षय के कारण एवं लक्षण समान है-

कुपोषण, लंघन, परिश्रम की अधिकता, वात वर्धक आहार-विहार, रुक्ष, लघु, कटु, तिक्त कषाय पदार्थों का अतिसेवन, चिन्ता, भय, लोभादि मानसिक कारण जो रस एवं कफ दोनों के क्षय के कारण है, समान है।

रुक्षता, श्रम, शोष, ग्लानि, हृदय की धडकन बढना आदि रस क्षय के लक्षण है। इसी प्रकार रुक्षता, अंतर्दाह श्लेष्माशयों में शून्यता, हृदयादि में शून्यता, संधियों में शिथिलता, तृष्णा, दुर्बलता, निद्रानाश आदि रस क्षय के समान ही कफ क्षय के लक्षण है।

(2) रस एवं कफ की वृद्धि के लक्षण एवं कारण भी समान है-

श्लेष्माऽग्नि सदन —————-। (अ. हृ. सू. 11/7-8)

अग्नि का मंद पडना, प्रेसेक, आलस्य, गौरवता, शीतता, शरीर का श्वेत वर्ण होना, अङ्गों में शिथिलता, श्वास, कास, अतिनिद्रा दोनों की वृद्धि में लक्षण देखने को मिलते है।

(3) रस की वृद्धि होने पर कफ की वृद्धि होती है एवं कफ की वृद्धि होने पर रस की

ठीक उसी प्रकार रस का क्षय होने पर कफ का क्षय एवं कफ का क्षय होने पर रस का क्षय होता है। अतः रस आश्रय है एवं कफ आश्रयी है।

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