व्युत्पत्तिः – तप संतापे’, ‘तपदाहेः’
“तापयति दहति भुक्तमाहारजातमिति पित्तम्।”
जो शरीर में दाह एव उष्मा उत्पन्न करे वह पित्त होता है, अर्थात् शरीर के तापक्रम (Temperature) एवं अपचय (Catabolism) को जो कारक होता है वह पित्त होता है। अमरकोष में पित्त को मायु भी कहा है। पित्त के द्वारा शरीर में उष्मा की उत्पत्ति एवं पाचन की प्रक्रिया होती है।

पित्त के गुण :-
सस्नेहमुष्णं तीक्ष्णं च द्रवमम्लं सरं कटु ।
विपरीतगुणैः पित्तं द्रव्यैराशु प्रशाम्यति।। (च. सू. 1/59)
पित्त, किंचिद् स्निग्ध, उष्ण, तीक्ष्ण, द्रव, अम्ल रस वाला, सर, कटु रस युक्त होता है। इसके विपरीत गुणों के प्रयोग से शीघ्र यह शान्त (अर्थात् कम होने वाला) होता है।
पित्तं तीक्ष्णं द्रवं पूति नील पीतं तथैव च।
उष्णं कटुरसं चैव विदग्धं चाम्लमेव च।। (सु.सू. 21/11 )
पित्त तीक्ष्ण, द्रव, दुर्गन्धित, नीलवर्ण, पीतवर्ण, उष्ण एवं कटु रस वाला होता है। विदग्ध होने पर अम्लता कटुता में परिवर्तित हो जाती है।
पित्तं सस्नेह तीक्ष्णोष्णं लघु विस्रं सरं द्रवम्। (अ.हृ.सू. 1/11)
पित्त ईषत् स्निग्ध, तीक्ष्ण, उष्ण, लघु, विस्र (दुर्गन्धयुक्त), सर एवं द्रव होता है।
पित्त के गुणों में उष्णता प्रमुख गुण है। उष्ण गुण के कारण शरीर में उष्णता की प्रतीति होती है। इसी गुण के कारण विशिष्ट पाक होते है, जिन्हें रासायनिक परिवर्तन या अग्नि कर्म कहा जाता है। पित्त का उष्ण गुण शरीर में सर्वत्र व्याप्त रहता है। इसके बिना आहार या औषध के रूप में ग्रहण किये द्रव्य शरीर के घटक नहीं बन सकते है।
पित्तस्य तापकत्वं। ऊष्मा या ताप पित्त की आत्मा होती है एवं देह में पित्त की उपस्थिति का साक्षी है। पित्त स्थित इसी उष्मा या अग्नि द्वारा समस्त प्रकार के पाक सम्भव है।
पित्तादेवोष्मणः पक्तिनराणामुपजायते।
पित्त के गुणों में आग्नेय गुण को सबसे प्रधान गुण माना है। इसी कारण पित्त को और अग्नि को अनेक स्थानों पर एक मानकर वर्णन किया गया है।
पित्त के कर्म
दर्शनं पक्तिरुष्मा च क्षुत्तृष्णा देहर्मादवम्।
प्रभा प्रसादो मेधा च पित्तकर्माविकारजम्।। (च.सू. 18/50)
दर्शन (Vision mechanism), पाचन (Digestion & metabolism) ऊष्मा उत्पादन (Temperature), भूख (Hunger), प्यास (Thirst) शरीर की कोमलता (शरीर से स्वेदोत्पत्ति कराकर त्वचा में कोमलता उत्पन्न करना), कान्ति, प्रसन्नता, बुद्धि प्राकृत पित्त के कार्य हैं।
पित्त का प्रमुख कार्य पाक है और यह- पाचकाग्नि (जठराग्नि), भूताग्नि एवं धातवाग्नियों पर आश्रित है। इन्हीं अग्नियों या पित्तों से आहार एवं धातुओं का पाक होने से शरीर का प्राकृत ताप (Temperature) या ऊष्मा उत्पन्न होती है। पित्त के द्वारा धातुओं का विघटन (Catabolism) होता है। जिसके कारण ऊष्मा, भूख एवं प्यास की उत्पत्ति होती है।
जब शरीर में पित्त प्राकृतावस्था में होते है। तब दर्शन, पंक्ति, ऊष्मा, भूख, प्यास, शरीर की मृदुता, कान्ति, प्रसन्नता, बुद्धि आदि भाव प्राकृत बने रहते है किन्तु जब पित्त का वैषम्य (कमी या अधिकता) होता है तो रोगों को उत्पन्न करते है। पित्त की अधिकता के कारण धातुओं का नाश अधिक होता है। जबकि पित्त का क्षय होने पर धातुपाक प्रक्रिया मंद पड़ जाती है, जिसके कारण आम (अपरिपक्व) धातुओं का निर्माण होता है।
स्वस्थानस्थस्य कायाग्नेरंशा धातुषु संश्रिताः।
तेषा सादाति दीप्तभ्यां धातु वृद्धि क्षयोद्भवः॥
पूर्वो धातुः परं कुर्याद् वृद्धक्षीणाश्च तद्विधम्।। (अ. ह. सू. 11/34-35 )
ग्रहणी में स्थित कायाग्नि के अंश रक्तादि धातुओं में स्थित है। इन धात्वाग्नियों के मंद होने से धातुओं की वृद्धि होती है और धातवाग्नि के अतिदीप्त होने से धातुओं का क्षय होता है तथा पूर्व धातु के बढने से उत्तर धातु वृद्धि होती है। पहली धातु के क्षीण होने पर अग्रिम धातु भी क्षीण होती है।
आधुनिक मतानुसार अग्न्याशय (Pancreas), क्षुद्रान्त्र के एन्जाइम विशेषकर ग्रहणी (Duodenum) के एन्जाइम पाचक पित्त होते हैं। अग्न्याशय एवं क्षुद्रान्त्र के स्राव एवं समानवायु जठराग्नि का कार्य करती है।
पित्त के स्थान
सम्पूर्ण शरीर में दाह, पाकादि कर्म होते है। इसलिए पित्त सर्वशरीर व्यापी होता है किन्तु आचार्यों ने अग्निकर्म जहाँ अधिक होते है। उन स्थानों को विशेष रूप से पित्त के स्थान बताये है-
स्वेदोरसो लसीका रुधिरमामाशयश्च पित्तस्थानानि, तत्राप्यामाशयो विशेषेण पित्तस्थानम्।। (च. सू. 20/8)
स्वेद (Sweat), रस (Plasm & Lymph), लसिका (Lymph), रुधिर (Blood cells special RBC), आमाशय (Duodenum) पित्त के स्थान है। इसमें भी आमाशय को पित्त का विशेष स्थान माना है।
आमाशय को पित्त एवं कफ दोनों का स्थान माना है। आयुर्वेद में आचार्यों ने आमाशय (Stomach) एवं ग्रहणी (Duodenum) को आमाशय माना है। अतः (Stomach) कफ का स्थान है एवं Duodenum पित्त का स्थान है।
ते व्यापिनोऽपि हृन्नाभ्योरधोमध्योर्ध्वसंश्रयाः। (अ.सं. सू. 1/25)
- अर्थात्-
- नाभि के अधोभाग में – वात का स्थान
- नाभि एवं हृदय के मध्य पित्त का स्थान
- हृदय से ऊपर कफ का स्थान
नाभिरामाशयः स्वेदो लसिका रुधिरं रसः।
दृक् स्पर्शनं च पित्तस्य, नाभिरत्र विशेषतः॥ (अ. ह. सू. 12/2)
नाभि (Umblical Region), आमाशय, स्वेद, लसिका रस, रक्त, आंख एवं त्वचा पित्त के स्थान हैं। इनमें भी नाभि प्रमुख रूप से पित्त का स्थान है।
पित्त के स्थान एवं कर्म
आचार्य | स्थान | कर्म |
चरक | स्वेद, रस, लसिका, रक्त, आमाशय आमाशय को विशेष स्थान माना है। च. सू. 20/8 | दर्शन, पाचन, उष्मा भूख, प्यास, मेधा, प्रभा प्रसाद का कारण। च. सू. 18/52 |
अष्टाङ्ग | नाभि, आमाशय, स्वेद, | पाचन, उष्मा, दर्शन |
हृदय | लसिका, रस एवं रक्त। नाभि को विशेष स्थान माना है। अ. ह. सू. 12/2 | भूख, प्यास, रुचि का कारण। प्रभा, मेधा, बुद्धि शौर्य, मृदुता उत्पन्न करना। अ. ह. सू. 11/3 |
सुश्रुत | यकृत, प्लीहा, हृदय नेत्र एवं त्वचा। सु. सू. 21/7 | आग्नेय स्वभाव के कारण लालिमा, पाचन कान्ति, बुद्धि, उष्मा उत्पन्न करना। सु. सू. 15/5 |
पित्त के भेद
आचार्य सुश्रुत एवं वाग्भट्ट ने स्थान एवं कार्य की भिन्नता के कारण पित्त के पाँच भेदों का वर्णन किया है-
रागपक्तितेजोमेधोष्मकृत्पित्तं पञ्चधा प्रविभक्तमाग्निकर्मणाऽनुग्रह करोति। (सु. सू. 15/5)
कर्म | पित्त |
रागकृत् | रंजक पित्त (रक्त निर्माण) |
पंक्ति कृत | पाचक पित्त (पाचन) |
तेजो कृत (दृष्टि उत्पन्न करने के कारण) | आलोचक पित्त |
मेधाकृत (बुद्धि उत्पन्न करने वाला) | साधक पित्त |
उष्मकृत् (ऊष्मा उत्पन्न करने वाला) | भ्राजक पित्त |
इस प्रकार आचार्य सुश्रुत ने पित्त के पाँच भेद इस प्रकार बताये हैं।
- रंजक पित्त
- पाचक पित्त
- आलोचक पित्त
- साधक पित्त
- भ्राजक पित्त
रंजक पित्त
स खल्वाप्यो रसो यकृत्प्लीहानौ प्राप्य रागमुपैति ।
रञ्जितास्तेजसा त्वापः शरीरस्थेन देहिनाम्।
अव्यापन्नाः प्रसन्नेन रक्तमित्यभिधीयते ॥ (सु. सू. 14/4-5)
अर्थात् आहार के पाचन के उपरान्त वह जलीय रस (जल की अधिकता वाला आद्य रस) यकृत एवं प्लीहा में पहुँचकर लालिमा (Red Colour) को प्राप्त होता है। उसे रक्त कहते है। (सू. सू. 14/4)
देहधारियों के शरीर में रहने वाला रंजक पित्त एवं आहार के प्रसादांश जल (आद्यरस) से उत्पन्न लाल वर्ण की रस धातु, रक्त धातु होती है। (सु. सू. 14/5)
तेजो रसानां सर्वेषां मनुजानां यदुच्यते ।
पित्तोष्मणः स रागेण रसो रक्तत्वमृच्छति। (च. चि. 15/27)
सभी मनुष्यों में रस का तेज अर्थात् रस का आग्नेय भाग पित्त की ऊष्मा से लालिमा को प्राप्त होकर रक्त कहलाता है, अर्थात् रस में उपस्थित रक्त निर्मापक तत्व पर रक्ताग्नि की क्रिया होती है। जिसके परिणामस्वरूप रक्तधातु का निर्माण होता है, अर्थात् रंजक पित्त रस से रक्त निर्माण का कार्य करता है।
आमाशयश्रयं पित्तं रञ्जकं रस रंजनात्।। (अ. हृ.सू.)
जो पित्त आमाशय में पाया जाता है। वह रंजक पित्त होता है।
आचार्य | स्थान | कर्म |
चरक | रंजक पित्त नाम से वर्णन नहीं | पित्त की उष्मा से रस का तेजस अंश को रक्त में परिवर्तन करता है। पित्त के कार्यों में वर्णन किन्तु रंजक पित्त के नाम से वर्णन नहीं मिलता है। |
सुश्रुत | यकृत (Liver) – प्लीहा (Spleen) | रस से रक्त का निर्माण करना। |
अष्टाङ्गहृदय | आमाशय (Stomach) | रस से रक्त का निर्माण |
शा. संहिता | यकृत (Liver) | रस से रक्त का निर्माण |
पाचक पित्त
पक्वमाशयमध्यस्थं पित्तं चतुर्विधमन्न पानं पचति विवेचयति च दोष रस मूत्र पुरीषाणिः तत्रस्थमेव चात्मशक्तया शेषाणाम् पित्तानां शरीरस्य चाग्निकर्मणाऽनुग्रहं करोति तस्मिन् पित्ते पाचकोऽग्निरिति संज्ञा। (सु. सू. 21/10)
अर्थात् आमाशय एवं पक्वाशय के मध्य अर्थात् Small intestine में पाने जाने वाला पाचक पित्त होता है।
- यह पित्त चतुर्विध (अशित, पीत, खादित, लेह) प्रकार के आहार को पचाने का कार्य करता है।
- दोष, रस, मूत्र एवं मल को पृथक्-पृथक् करता है।
- अपने स्थान पर स्थित अपने प्रभाव से शेष चार पित्त रंजक, भ्राजक, साधक, आलोचक को बल प्रदान करता है तथा अग्नि कर्म द्वारा (Metabolism & digestion) शरीर को स्वस्थ बनाये रखता है।
आचार्य चरक ने पित्त के भेदों का वर्णन नहीं किया फिर भी जठराग्नि को अग्नियों में प्रधान माना है। पाचकाग्नि को शेष 12 अग्नियों का मूल माना है पाचकाग्नि की वृद्धि होने पर शेष अग्नियों की वृद्धि होती है एवं पाचकाग्नि क्षीण होती है तो अन्य अग्नियाँ भी क्षीण हो जाती है। पाचकाग्नि ही पाचक पित्त है किन्तु आचार्य चरक ने इसे पाचक पित्त नाम नहीं दिया हैं। पाचकाग्नि में मंद होने से अन्य अग्नि अर्थात् Metabolism प्रक्रिया मंद हो जाती है। यह अग्नि ही धातुओं की क्षय एवं वृद्धि का कारण होती है।
अन्नस्य पक्ता सर्वेषां पक्तॄणामधिपो मतः। तन्मूलास्ते हि तद् वृद्धिक्षय वृद्धिक्षयात्मकाः।। (च.चि. 15/39)
तत्र पक्क्वामाशयमध्यगम्। पञ्चभूतात्मकत्वेऽपि यत्तैजसगुणोदयात्।।
त्यक्तद्रवत्वं पाकादिकर्मणाऽनलशब्दितम्। पचत्यन्नं विभजते सारकिट्टौ पृथक तथा।
तत्रस्थमेव पित्तानां शेषाणामप्यनुग्रहम्। करोति बलदानेन पाचकं नाम तत्स्मृतम्।। (अ.हृ.सू. 12/10-12)
अर्थात् जो पित्त पक्वाशय (Large intestine) एवं आमाशय (Stomach) के मध्य अर्थात् Small intestine विशेषकर Duodenum में रहकर, पंच महाभूतों से निर्मित होने पर भी आग्नेय गुण की इसमें अधिकता के कारण द्रवता को छोड देती है एवं अपने साथ काम करने वाली वायु के द्वारा दहन, पाचन आदि कर्म करती है। सार एवं किट्ट को अलग-अलग करती है तथा अपने स्थान पर स्थित यह अग्नि अन्य पित्त (रंजक पित्त, भ्राजक पित्त, साधक पित्त, आलोचक पित्त को बल प्रदान करती है। इस प्रकार यह पित्त शरीर को स्वस्थ रखता है।
पाचन पित्त के संक्षपे में स्थान एवं कर्म
स्थान | कर्म |
आमाशय एवं पक्वाशय के मध्य में अर्थात् Small intestine विशेषकर Duodenum के Secretion | 1. अन्न का पाचन। 2. दोष, रस, मूत्र, पुरीषादि को अलग-अलग करना। 3. अन्य पित्तों को बल प्रदान करना। 4. आयु, बल, वर्ण, स्वस्थता, उत्साह कान्ति, ओज ये पाचक पित्त के अधीन है। |
आधुनिक मतानुसार
- Enzymes of pancrease – Digestion of Fat
- Enzyme of small intestine Like Diasaccharidase Dipetidase etc. – Digestion of Carbohydrate & Digestion of proteins.
भ्राजक पित्त के स्थान एवं कर्म
यत्तु त्वचि पित्तं तस्मिन् भ्राजकोऽग्निरिति संज्ञा, सोऽभ्यङ्गपरिषेकावगाहावलेपनादीनां क्रिया द्रव्याणां पंक्ता छायानां च प्रकाशकः। (सु. सू. 21/10)
अर्थात् जो पित्त त्वचा (Skin) में रहता है, उसे भ्राजक अग्नि अर्थात् भ्राजक पित्त कहते है। यह अभ्यङ्ग (Massage) परिषेक, अवगाहन (Tube Bath), लेपन आदि क्रियाओं द्वारा प्रयुक्त द्रव्यों का पाचन त्वचा में भ्राजक पित्त के द्वारा होता है।
अग्निरेव शरीरे पित्तान्तर्गतः —-प्रकृतिविकृतौ वर्णी। (च. सू. 12/11)
पित्त के अन्दर रहने वाली अग्नि के कारण ही स्वभाविक गौर, कृष्णादि वर्ण एवं विकृत अग्नि के कारण विकृत वर्ण होते है। जैसे (Leucoderma).
आयुर्वेद मतानुसार जिस अग्नि के द्वारा त्वचा का वर्ण उत्पन्न होता है, वही भ्राजक पित्त है। मलेनिन के कारण त्वचा का वर्ण प्रभावित होता है। मलेनिन भ्राजक पित्त से कुछ समानता रखता है।
त्वक्स्थं भ्राजकं भ्राजनात्वचः॥ (अ. ह. सू. 12/14)
त्वचा स्थित पित्त का नाम भ्राजक पित्त है। यह त्वचा को प्रकाशित करता है।
छाया एवं प्रभा
छाया वर्ण पर छा जाती है अर्थात् कान्ति को समाप्त कर देती है। प्रभा वर्ण को प्रकाशित करती है। छाया पास से दिखाई देती है तथा प्रभा दूर से प्रकाशित होती है।
छाया – प्रतिच्छाया
वर्णमाक्रामतिच्छाया भास्तु वर्णप्रकाशिनी।
आसन्ना लक्ष्यतेच्छाया भाः प्रकृष्टा प्रकाशते ।। (च. इ.7/16)
छाया, वर्ण पर छा जाती है तथा जल, दर्पण धूप में जो छाया दिखाई देती है, वह प्रतिच्छाया होती है। छाया शरीरगत वर्ण एवं प्रभा पर आश्रित होती है।
प्रतिप्रमाणसंस्थाना जलादर्शातपादिषु।
छाया या सा प्रतिच्छाया वर्ण प्रभाश्रया।। (च. इ.7/9)
छाया के प्रकार एवं लक्षण
1. | नाभसी | निर्मल, नीलवर्ण, स्निग्ध, कान्ति युक्त छाया |
2. | वायवी | छाया रुक्ष, श्याव या अरुण वर्ण की कान्तिहीन |
3. | आग्नेय | चमकदार, आभायुक्त, देखने में प्रिय |
4. | जलीय | वैदूर्य मणि के समान आभा वाली एवं अत्यन्त स्निग्ध |
5. | पार्थिवी | निर्मल, स्निग्ध, सुखदायक |
प्रभा
सभी प्रभा तेज से उत्पन्न होती है एवं ये सात प्रकार रक्त, पीत, श्वेत, श्याव, हरित, पाण्डु एवं असित होती है।
साधक पित्त के स्थान एवं कर्म (Location and functions of sadhaka pitta)
यत् पित्तं हृदयसंस्थितं तस्मिन् साधकोऽग्निरिति संज्ञा ।
सोऽभिप्रार्थित मनोरथ साधनकृदुक्तः॥ (सु. सू. 21/10)
जो पित्त हृदय में रहता है, उसे साधक अग्नि कहते है। यह इच्छित मनोरथ (धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष) की प्राप्ति का साधन है।
अग्निरेव शरीरे—-शौर्यं भयं क्रोधं हर्षं मोह प्रसादमित्येवमादीनिचापराणि दन्द्वानीति। (च. सू. 12/11)
पित्त के अंदर रहने वाली अग्नि शौर्य अथवा भय, क्रोध अथवा हर्ष, मोह अथवा प्रसाद उत्पन्न करता है। यहाँ आचार्य चरक ने साधक पित्त नाम से वर्णन नहीं किया है किन्तु चरकोक्त शौर्य, भय, क्रोध, हर्ष, मोह, प्रसादादि साधक पित्त के कार्य ही है।
हृदयस्थं बुद्धिमेधाभिमानोत्साहैरभिप्रेतार्थसाधिनात् साधकम्।। (अ.स.सू. 20/5)
अर्थात् जो पित्त बुद्धि, मेधा, अभिमान, उत्साह आदि वांछित मनोरथ का साधन है, साधक पित्त होता है। संक्षेप हम कह सकते है कि साधक पित्त का स्थान हृदय है एवं बुद्धि, मेधा, अभिमान, उत्साह, वांछित मनोरथ धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष का साधन है।
आलोचक पित्त के स्थान एवं कर्म (Location and Function of Aalochak pitta)
यदृष्ट्यां पित्तं तस्मिन्नालोचकोऽग्निरिति संज्ञा, स रूप ग्रहणाधिकृतः। (सु. सू. 21/10)
जो पित्त दृष्टि अर्थात् नेत्रों में रहता है उसको आलोचक पित्त कहा जाता है। वह रूप ग्रहण कराने (रूपेन्द्रिय के द्वारा रूप ज्ञान) का कार्य करता है।
“दृष्टिस्थं रुपालोचनादालोचकम्।।” (अ.स.सू. 20/5)
नेत्रों में स्थित रूप का ज्ञान कराने वाले पित्त को आलोचक पित्त कहते है।
आचार्य चरक ने पित्त के भदों का वर्णन नहीं किया है किन्तु पित्त का दर्शन कर्म बताया है एवं विकृति की अवस्था में अदर्शन का वर्णन किया है। यह कार्य आलोचक पित्त का कार्य है।
अग्निरेव ————दर्शनमदर्शन (च. सू. 12/11)
अर्थात् दर्शन एवं अदर्शन का कारण आलोचक पित्त है।
आलोचक पित्त के भेद
भेल संहिता में आलोचक पित्त के दो भेद बताये हैं –
- चक्षुवैशेषिक पित्त
- बुद्धि वैशेषिक पित्त
1. चक्षुवैशेषिक पित्त :- जो पित्त आत्मा, मन, चक्षुरेन्द्रिय एवं विषय (वर्णादि) के संयोग के परिणाम स्वरूप रूप का ज्ञान कराये चक्षुवैशेषिक पित्त होता है।
तत्र चक्षुवैशेषिको नाम य आत्ममनस्सन्निकर्ष ज्ञानमुदीरयित्वा ।
2. बुद्धिवैशेषिक आलोचक पित्त :- यह पित्त भ्रुवों के मध्य श्रृंगाटक में रहता है। इस पित्त के कारण व्यक्ति भिन्न-भिन्न वस्तुओं में भिन्नता का ज्ञान कर वस्तु को पूर्व स्मृति के आधार पर उस वस्तु का ज्ञान करता है।
पित्त के भेद, स्थान एवं कर्म
नाम | स्थान | कर्म |
रंजक पित्त (Haemopoietic Factors & Enzymes) | यकृत-प्लीहा-(सुश्रुतानुसार) आमाशय (वाग्भट्टानुसार) | रस को रंजित कर रक्त का निर्माण करना |
पाचक पित्त (Digestive Enzymes & Metabolic substance) | आमाशय एवं पक्वाशय के मध्य में Secretion of Small intestine & Pancrease | 1. अन्न का पाचन (Digestion of food) 2. दोष रस, मूत्र, पुरीष का पृथक्-पृथक् करना 3. अन्य पित्तों (रंजक, भ्राजक, साधक एवं आलोचक को बल प्रदान करना। 4. आयु, बल एवं उत्साह को बनाये रखना |
भ्राजक पित्त (Melanocytes Like pigments) | त्वचा | त्वचा द्वारा प्रयुक्त परिषेक, अवगाहन, लेप आदि द्वारा प्रयुक्त औषध का अवशोषण एवं पाचन कराना। |
साधक पित्त (Cortisol, Ach, Adrenalin, nor adrenalin, serotonin etc.) | हृदय में | बुद्धि, मेधा, अभिमान वांछित मनोरथ की सिद्धि (These substances remove stress make happy) |
आलोचक पित्त (Rodopsine & Idoposin) | नेत्रों | रूप ग्रहण Help in optic Mechanism |