मेद धातु (Meda Dhatu) – कार्य, मेद क्षय, मेद वृद्धि के लक्षण

by DR. HAMID HUSSAIN
मेद धातु (Meda Dhatu) - कार्य, मेद क्षय, मेद वृद्धि के लक्षण

मेद धातु चौथी धातु होती है। यह Adipose Tissue के रूप में शरीर में पायी जाती है। यह त्वचा के नीचे उदर (Abdomen), अस्थि, वपावहन (Omentum) एवं दूसरे Fat depot में पायी जाती है। मेद शरीर का वह स्नेहांश है जिसे आहार द्वारा सेवन नहीं किया जाता है क्योंकि यह शरीर के अनेक स्नेहों से संयुक्त हो Compound के रूप में पाया जाता है। जैसे Phospholipid.

शरीर में स्नेह निम्नलिखित रूप में पाया जाता है।

Total Plasma Lipid400-600mg/dl
Total cholestrol140-200mg/dl
HDLMale: 30-60mg/dl
Female: 35-70mg/dl
LDL80-130mg/dl
TriglycerideMale: 50-150mg/dl
Female: 40-150mg/dl
Phospholipid150-200mg/dl
Free fatty acid10-20mg/dl

70 kg शरीर भार वाले व्यक्ति में 140 ग्राम Cholestrol होता है। Brain एवं Nervous system में 30 ग्राम, मांसपेशियों में 30 ग्राम, Adipose tissue में 30 ग्राम, रक्त में 10 ग्राम, यकृत एवं प्लीहा में 10 ग्राम, Bone marrow में 5 ग्राम, अन्न प्रणाली में 3 gm एवं Adrenal gland में 2 ग्राम होता है।

मेद धातु (Meda Dhatu) - कार्य, मेद क्षय, मेद वृद्धि के लक्षण

मेद धातु की उत्पत्ति

मांस से मेद की उत्पत्ति होती है। (च. चि. 15/15)

अर्थात् मांस में उपस्थित मेदसधर्मी अंश पर मेदाग्नि की क्रिया से मेद धातु का निर्माण होता है। मेद धातु का आहार के रूप में ग्रहण नहीं किया जा सकता। मेद आहार में स्नेह के रूप में पाया जाता है एवं अन्त में मेद धातु का निर्माण करती है। मेद धातु पाँचभौतिक होता है किन्तु इसमें पृथ्वी एवं जल महाभूत की प्रधानता होती है।

एक काल पोषण न्याय के अनुसार सभी धातुओं का निर्माण अन्नरस के द्वारा सम्पन्न होता है। अन्नरस में उपस्थित मेद सधर्मी अंश पर मेदाग्नि की क्रिया में मेद धातु का निर्माण होता है।

स्वोष्मणा पक्वमेव तत् ॥
स्वतेजोऽम्बुगुणस्निग्धोद्रिक्तं मेदोऽभिजायते।) (च. वि. 15/28-29)

मांस में उपस्थित मेद सधर्मी अंश पर अपनी ही अग्नि अर्थात् मेदोऽग्नि की क्रिया से जल से युक्त स्निग्ध धातु का निर्माण होता है, मेद कहलाती है।

मेद धातु का स्वरूप एवं गुण :- मेद धातु में जल एवं पृथ्वी महाभूत की प्रधानता होती है। यह धातु द्रव, स्निग्ध, श्लक्ष्ण, पिच्छिल, वर्ण में श्वेत पीत, स्वाद में मधुर, पाक में गुरु एवं विशिष्ट गंध वाली होती है।

मेदो धातु का स्थान :-

तृतीया मेदोधाराः, (मेदा हि सर्वभूतानामुदरस्थमण्वस्थिषु च महत्सु च मज्जा भवति।। (सु. शा. 4/12)

तीसरी मेदोधरा कला है। मेद सभी प्राणियों के उदर एवं छोटी अस्थियों में रहता है एवं बडी अस्थियों में मज्जा रहती है। Surnum, Ribs, Skull, Vertebral, Scabulla.

स्थूलास्थिषु विशेषेण मज्जा त्वभ्यन्तराश्रितः। अथेतरेषु सर्वेषु सरक्तमेद उच्यते॥ (सु. शा. 4/13)

बडी अस्थियों में मज्जा एवं अन्य अर्थात् छोटी अस्थियों में सरक्त मेद अर्थात् मेद धातु रहती है। जन्म के समय में सभी अस्थियों में सरक्तमेद होता है जैसे-जैसे आयु बढती है सरक्तमेद (Red Bone Marrow) Yellow bone marrow में परिवर्तित होने लगती है। 18 वर्ष की अवस्था में Sternum, Ribs, skull bone, vertebral bone, scapulla आदि में Red bone marrow होती है। Long bone जैसे Humerus, femur के head को छोड़कर Radius, Ulana, Tibia एवं Febula में yellow bone marrow होती है। यह Red bone marrow मेद धातु है।

Composition of red bone marrow

  • Granulocyte & their precursors- 60%
  • Erythrocyte & their precursors – 20%
  • Lymphocyte, monocyte their precursors-20%
  • Other (Non identifiable & degenated cells) – 10%

सरक्त मेद (मेद धातु में) जितनी (Adventious cells) Blood cells होती है। उतनी ही मात्रा में Fat cell भी पायी जाती है।

मेद धातु के कार्य

प्रीणनं जीवनं लेपः स्नेहो—‒‒‒‒‒‒। (अ.स.सू. 1/33)

अष्टाङ्ग संग्रह में सात धातुओं के क्रमशः प्रीणन, जीवन, लेपन, स्नेहन, धारण, पूरण एवं गर्भोत्पत्ति बताये है। स्नेहन अर्थात् शरीर में स्निग्धता उत्पन्न करना मेद धातु का कार्य है।

(मेदः स्नेहस्वेदौ दुढत्वं पुष्टिमस्थ्नाम् च (सु. सू. 15/7)

अर्थात्-

  1. शरीर को स्निग्धता प्रदान करना।
  2. दृढता (शरीर को दृढ/मजबूत बनाना)
  3. स्वेदोत्पत्ति करना
  4. अस्थियों को पुष्ट बनाना।

मेद का प्रमाण :- चरक ने मेद का प्रमाण 2 अंजली बताया है।

मेदोवह स्रोतस् – मेदवह स्रोतस् का मूल वृक्क (Kidneys) एवं वपावहन (Omentum) को बताया है।

मेद क्षय :-

कारण :- रुक्ष, लघु आदि वात वर्धक आहार का सेवन करना।

  • व्यायाम या परिश्रम की अधिकता।
  • अग्नि की तीक्ष्णता
  • उपवास एवं लंघन का अति सेवन करने से

आधुनिक मतानुसार – Fat रहित भोजन करना।

  • अंतस्रावी ग्रंथियों की विकृति जैसे डायबिटीज, हाइपर- थाइराइड की अतिसक्रियता आदि।

मेद क्षय के लक्षण :-

मेदः क्षयेप्लीहाभिवृद्धिः संधिशून्यता रौक्ष्यं मेदुरमांस प्रार्थना च।। (सु.सू. 15/13)

प्लीहावृद्धि (Splenomegaly)

  • संधियों में शून्यता (Emptiness or gap in Joints)
  • रुक्षता (Dryness or lack of cholestrol & triglyceride)
  • मेदुर मांस खाने की इच्छा (स्निग्ध पदार्थ सेवन की इच्छा होना।

संधीनां स्फुटनं ग्लानिरक्ष्णोरायास एव च।
लक्षणं मेदसि क्षीणे तनुत्वम् चोदरस्य च।। (च. सू. 17/66)

  • संधियों में स्फुटन (फटने जैसी पीड़ा) होना।
  • नेत्रों में ग्लानि (दर्शनेन्द्रिय के कार्य जैसे पढना, लिखना या अन्य दर्शेन्द्रिय के कार्यों में कठिनाई का होना)।
  • थकावट (Fatigue)
  • उदर का तनु होना (छोटा होना)

मेदसि स्वप्नं कट्याः प्लीहावृद्धिः कृशाङ्गता। (अ. ह. से. 11/18)

  • कटि में सुन्नता (Numbness in lumbar region)
  • प्लीहा का बढना (Splenomegly)
  • कृशांता (Weakness)

चरक ने सभी धातुओं के क्षय के समान इस धातु के क्षय होने पर भी इसके प्राकृत गुण एवं कर्मों के कार्यों में कमी होती है।

मेद वृद्धि

कारण :- स्निग्ध, गुरु, मेदावर्धक पदार्थों का अत्यधिक सेवन।

  • परिश्रम या व्यायाम न करना।
  • दिवास्वप्न करने से

लक्षण:- मेदः स्निग्धाङ्गतामुदरपार्श्ववृद्धि कासश्वासादीन् दौर्गन्ध्यं च।। (सु. सू. 15/19)

  • अनों की स्निग्धता (Oily skin)
  • उदरपार्श्व वृद्धि (Obesity)
  • कास श्वासादि रोग होना (Cough/Asthma like disease)
  • दौर्गन्ध्यं (शरीर से दुर्गन्ध आना) (Foul smell from body)

————————-मेदस्तथा श्रमम् ।
अल्पेऽपि चेष्टिते श्वासं स्फिक् स्तनोदरलम्बनम्॥ (अ. ह. सू. 11/10)

  • अल्पपरिश्रम से श्वास फूलना (Tachycardia of low excercise)
  • स्फिगू (Buttocks), स्तन (Mammary glands) उदर (Abdominal Region) का लटकना
  • अर्थात् स्फिगू, स्तन एवं उदर पर चर्बी का जमा होना।

मेदोवह स्रोतस की दृष्टि :-

अव्यायामाद् दिवास्वप्नान्मेद्यानां चातिभक्षणात्।
मेदोवाहीनि दूष्यन्ति वारुण्याश्चाति सेवनात्।। (च. वि. 5/16)

  • व्यायाम न करने से
  • दिवा शयन (दिन में सोने से)
  • मेदो वर्धक पदार्थों का अति सेवन करने से (घी, तेल, मांस, मछली, अण्डे आदि की अधिकता वाले आहार)
  • अधिक वारुणी (मद्य) का सेवन करने से मेदो वाही स्रोतस् दृष्ट होती है।

मेदोवह स्रोतस् की दृष्टि के लक्षण :-

  • स्वेद प्रवृत्ति की अधिकता (Excessive sweating )
  • अङ्गों की स्निग्धता (Oily skin)
  • तालु शोष (Dryness of mouth)
  • स्थूलता (Obesity)
  • शोथ (Odema)
  • प्यास की अधिकता (Thirst)

चिकित्सा :- गुरु एवं अपर्तण चिकित्सा

मेदसार पुरुष के लक्षण :-

वर्ण स्वर केश लोमनखदन्तोष्ठमूत्रपुरीषेषु विशेषतः स्नेहोमेदः सारणाम्।
सा सारता वित्तैश्वर्यसुखोपभोगप्रदानान्यार्जवं सुकुमारोपचारतां चाचष्टे।। (च. वि. 8/106)

वर्ण (Complexion), स्वर (Voice) नेत्र, केश, रोम (Skin hair), नख (Nails), दन्त, ओष्ठ, मूत्र, पुरीष (Stool) विशेष रूप से स्निग्ध होते हैं।

वह व्यक्ति धन, ऐश्वर्य, सुखी, उपभोग करने वाला, दान देने वाला, सुकुमार (कष्ट सहन नहीं करने वाला)

स्निग्धमूत्रस्वेद स्वरं वृहच्छरीरमायासासहिष्णुत्वं मेदसा।। (सु. सू. 35/18)

  • स्निग्ध, मूत्र, स्वेद, स्वर वाला
  • स्थूल शरीर वाला
  • परिश्रम को न सहन करने वाला

ऐसा पुरुष मेदसार होता है।

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