व्युत्पत्ति :- श्लिष आलिङ्गने धातु में मनिंन प्रत्यय लगने से श्लेष्मा शब्द बना है। अर्थात् जिसमें संयोग या जोडने की शक्ति हो उसे श्लेष्मा कहते है।
निरुक्ति – श्लिष अलिङ्गने धातु में कृदन्त प्रत्यय लगने से श्लेष्यतेऽनेन इति से श्लेष्मा शब्द बनता है।
कफ :- केन जलेन फलति, वर्धते इति कफः। (वाचस्पत्यम्)
जो जल से उत्पन्न या बढता है, उसे कफ कहते है। शरीर में कफ को चन्द्रमा का प्रतिनिधि माना है। यह शरीर में शीतलता उत्पन्न करता है। कफ का निर्माण पृथ्वी एवं जल महाभूत की अधिकता से हुई है। कफ शरीर को पित्त की तीक्ष्णता से बचा कर शरीर में शीतलता उत्पन्न करता है।
सोम एवं शरीरे श्लेष्मान्तर्गतः कुपिताकुपितः शुभाशुभानि करोति। (च. सू. 12/12)

कफ का स्वरूप (Properties of kapha)
कफ पांच भौतिक होते हुए भी इसमें जल महाभूत की अधिकता होती है। अतः इसमें जल महाभूत स्निग्ध, शीत, मंद, मृदु, पिच्छिल एवं मधुर रस आदि गुण पाये जाते है। इसमें जल महाभूत के साथ पृथ्वी महाभूत की अधिकता होती है। अतः गुरु, स्थिर आदि गुण भी पाये जाते है। इसमें पृथ्वी एवं जल महाभूत के मिश्रित गुण पाये जाते है। पृथ्वी एवं जल में तम गुण पाया जाता है। अतः श्लेष्मा में तम गुण पाया जाता है।
स्नेहशैत्यशौक्ल्यगौरवमाधुर्यस्थैर्यपैच्छिल्यमात्सर्व्यानि श्लेष्मणः आत्मरूपाणि। (च. सू. 20/18)
अर्थात् स्निग्धता, शीतलता, श्वेतता, भारीपन, मधुरता, स्थिरता, पिच्छिलता एवं चिकनापन ये कफ का अपना स्वरूप होता हैं। ये भाव कफ में अपने निम्नलिखित गुणों के कारण होते हैं-
गुरुशीत मृदुस्निग्धमधुरस्थिरपिच्छिलाः।
श्लेष्मणः प्रशमं यान्ति विपरीतगुणैगुणाः।। (च. सू. 1/61)
गुरु, शीत, मृदु, स्निग्ध, मधुर रस, स्थिर एवं पिच्छिल श्लेष्मा के गुण है। इसके विपरीत गुण कफ या श्लेष्मा को कम करने वाले होते हैं अर्थात् विरोधी गुण हैं।
स्निग्धः शीतो गुरुर्मन्दः श्लक्ष्णों मृत्स्नः स्थिरः कफः॥ (अ. सं. सू. 1/29 (33
अर्थात् स्निग्ध, शीत, गुरु, मंद, श्लक्ष्ण, मृदु एवं स्थिर कफ के प्राकृत गुण है।
श्लेष्मा श्वेतो गुरुः स्निग्धः पिच्छिलः शीत एव च।
मधुरस्त्वविदग्धः स्याद् विदग्धो लवणः स्मृतः।। (सु. सू. 21/15)
अर्थात् सुश्रुत मतानुसार श्लेष्मा श्वेत वर्ण वाला, भारी, स्निग्ध, पिच्छिल (चिपचिपा) एवं शीत होता है। प्राकृत अवस्था में मधुर एवं विदग्ध होने पर लवण होता है।
शार्ङ्गधर ने उक्त गुणों का ही वर्णन किया है किन्तु उन्होंने ने कफ में तम गुण का भी वर्णन किया है।
श्लेष्मा या कफ के स्थान
वात एवं पित्त के समान श्लेष्मा भी पूरे शरीर मे स्थित होता है एवं अपना कार्य करता हुआ पित्त के कार्यों को मर्यादित करता हुआ शरीर को स्वस्थ बनाये रखता है। सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त होने पर भी कुछ इसके विशेष स्थान है-
उरः शिरोग्रीवा पर्वाण्यामाशयो मेदश्च श्लेष्मस्थानानि तत्राप्युरो विशेषेण श्लेष्म स्थानम्।। (च. सू. 20/8)
उरः प्रदेश (Thorax) शिर (Brain), ग्रीवा (Throat), पर्व (Joints), आमाशय (Stomach) एवं मेद (Adipose tissue) ये कफ के स्थान है। इनमें भी उरः प्रदेश विशेष रूप से कफ का स्थान है।
उरः कण्ठः शिरः क्लोम पर्वाण्यामाशयो रसः ।
मेदो घ्राणं च जिह्वा च कफस्य सुतरामुरः। (अ.हृ.सू. 12/3-4)
अर्थात् उर प्रदेश (Thorax), कण्ठ (Throat), शिरः (Brain), क्लोम, पर्व (Joints), आमाशय (Stom- ach), रस (Plasma), मेद (Adipose Tissue), घ्राण (Nose) एवं जिह्वा (Tongue) को कफ का स्थान माना है।
- आचार्य काश्यप ने हृदय को श्लेष्मा का विशेष स्थान माना है।
- अष्टाङ्ग संग्रह में वाग्भट्ट ने हृदय के ऊर्ध्व भाग में श्लेष्मा का स्थान बताया है।
कफ के कार्य
कफ पांचभौतिक है फिर भी पृथ्वी एवं जल महाभूत की अधिकता के कारण यह शरीर का पोषण करता है। कफ में पाये जाने वाले स्निग्ध, शीत, श्लक्ष्ण, गुरु आदि गुणों के कारण शरीर में इन गुणों की उपस्थिति देखने को मिलती है।
सोम एव शरीरे श्लेष्मान्तर्गतः कुपिताकुपितः शुभाशुभानि करोति, तद्यथा दार्द्धं शैथल्यमुपचयं कार्श्यमुत्साह- मालस्यं वृषता क्लीवतां ज्ञानमज्ञानं बुद्धिं मोहमित्येवमादीनि चापराणि द्वन्द्वानि इति। (च. सू. 12/12)
अर्थात् प्राकृत एवं वैकृत श्लेष्मा निम्नलिखित कार्य करता है-
प्राकृत कफ | वैकृत कफ |
दृढता उत्पन्न करना | शिथिलता उत्पन्न करना |
शरीर का उपचय | शरीर में दुर्बलता उत्पन्न करना |
उत्साह | आलस्य |
वृषता | क्लीवता |
बुद्धि | मोह |
स्नेहो बन्धः स्थिरत्वं च गौरव वृषता बलम्।
क्षमा धृतिरलोमश्च कफ कर्माविकारजम्।। (च. सू. 15/51)
स्निग्धता, सन्धि बंधनो में स्थिरता, शरीर में भारीपन (पुष्टि करना) वृषता (Sexual power) बल (Immunity) क्षमा, धृति एवं अलोभ को श्लेष्मा उत्पन्न करता है।
प्राकृत कफ को आचार्य चरक ने बल माना है। बल से तात्पर्य रोग प्रतिरोधक क्षमता (Immunity power/ Stemina) से है। विकृत कफ मल का कार्य करता हैं। यह शरीर में आमोत्पत्ति का प्रमुख कारण होता है। शरीर में इसके विकृत होने से अग्नि- मंदता, स्थूलता, प्रमेह आदि रोग उत्पत्ति का कारण है।
श्लेष्मा स्थिरत्व स्निग्धत्व संधिवंधक्षमादिभिः। (अ.हृ.सू. 11/3)
अर्थात् अविकृत कफ दृढाङ्गता, स्निग्धता, संश्लिष्ट, सन्धित्व एवं सहिष्णुता आदि से शरीर का उपकार करता है।
श्लेष्मा के भेद
वाग्भट ने कफ के पाँच भेदों का वर्णन किया है। चरक एवं सुश्रुत ने कफ के भेदों का वर्णन किया है।
- क्लेदक कफ
- बोधक कफ
- तर्पक कफ
- अवलम्बक कफ
- श्लेषक कफ
संधिसंश्लेषणस्नेहरोपणपूरणबलस्थैर्यकृत् श्लेष्मा पञ्चधा प्रविभक्त उदक कर्मणाऽनुग्रहं करोति। (सु. सू. 15/6)
अर्थात् आचार्य सुश्रुत ने कफ के पाँच कार्य बताये हैं-
- संधि संश्लेषण
- रोपण
- स्नेहन
- पूरण
- बल स्थैर्य कृत्
ये जो कर्म है, वे अप्रत्यक्ष रूप से आचार्य वाग्भट के कफ के पाँच भेदों के कर्म ही है।
क्लेदक कफ
- क्लेदक कफ का स्थान आमाशय को माना है।
- आमाशय को पित्त का भी स्थान माना है किन्तु आमाशय का ऊर्ध्व भाग (Stomach) कफ का एवं अधोभाग (Duodenum) पित्त का स्थान माना है।
- क्लेदक कफ अन्न को क्लेदित (गीला) कर मृदु बनाता है। सम्भवतः Stomach का Mucin ही क्लेदक कफ है।
- क्लेदक कफ अन्न को पाचन एवं अग्रिम-गति (Duodenum) में पहुँचाने में सहायक है। आमाशय उपस्थित Hcl की तीव्रता को Stomach से निकलने वाला Mucin कम करता है एवं भोजन का ठीक प्रकार से पाचन एवं Chyme को अग्रिम गति प्रदान करवाता है।
आमाशयस्थितोऽन्नसंघातस्य क्लेदनात्क्लेदकः ॥ (अ.स.सू.20/6)
यस्त्वामाशय संस्थितः।
क्लेदकः सोऽन्नसंघातक्लेदनात्। (अ. ह. सू. 12/16-17)
बोधक कफ स्थान एवं कर्म (Location & Functions of Bodhak Karma)
जिह्वा के मूल एवं कण्ठ (Mouth) में जो कफ स्थित रहता है एवं अपने सौम्य गुण से रसनेन्द्रिय को रस का ज्ञान कराता है।
जिह्वामूलकण्ठस्थो जिह्वेन्द्रियस्य सौम्यत्वात्
सम्यक् रसज्ञान वर्तते। (सु. सू. 21/14)
रसनस्थः सम्यक् रसबोधनाद्बोधकः। (अ. स.सू. 20/6)
- शार्ङ्गधर एवं भावमिश्र ने बोधक कफ का स्थान कण्ठ बताया है।
आधुनिक मतानुसार बोधक कफ Saliva का Mucus है। Mucus में 99% जल होता है। यह भोजन गीला करता है Saliva के Mucin के बिना Taste ज्ञान नहीं होता है न ही Bolus का निर्माण सम्भव है। अतः बोधक कफ Taste ज्ञान एवं Bolus को निगलने (Deglutation) में सहायता प्रदान करता है। Saliva में पाये जाने वाला Lysozyme एक ऐसा Enzyme है, जो मुँह में होने वाले व्रण को रोपण करने का कार्य करता हैं।
तर्पक कफ के स्थान एवं कर्म
जो कफ शिर में स्थित है एवं चक्षुरादि इन्द्रियों को तर्पण करता है, उसे तर्पक कफ कहते है। यह मस्तिष्क का स्नेहन एवं तर्पण करता है।
शिरस्थश्चक्षुरादीन्द्रिय तर्पणात् तर्पकः। (अ. ह. सू. 20/6)
शिर संस्थोऽक्षतर्पणात् तर्पक-I (अ. ह. सू. 12/17)
मस्तिष्क एवं सुषुम्ना में पाये जाने वाले Cerebrospinal fluid को तर्पक कफ कह सकते हैं। मस्तिष्क में तीन Meninges Dura-mater, Archnoid एवं Pia mater रहती है। Arachnoid एवं Piamater के मध्य अवकाश को Subarachnoid space कहते है जो Spinal Cord के इसी अवकाश के साथ मिलता है। इसमें द्रव भरा रहता है। जिसे Cerebrospinal fluid कहते है। यह तर्पक कफ से समानता रखता है।
शिरस्थ: स्नेहसंतर्पणाधिकृतत्वाद् इन्द्रियाणामात्मवीर्येणानुग्रहं करोति। (सु. सू. 21/14)
शिर में स्थित कफ स्नेहन एवं तर्पण क्रियाओं के द्वारा अपने वीर्य से (तर्पक कफ में स्थित कार्यकारी तत्वों द्वारा) चक्षुरादि इन्द्रियों का पोषण एवं उनके कार्यों को सम्पन्न कराता है।
श्लेषक कफ के स्थान एवं कर्म (Location & Functions of Sleshak kaph)
श्लेषक कफ शरीर की समस्त संधियों में रहता है। यह श्लेष्मा संधियों में रहकर संधि संश्लेषण (संधि
निर्माण) एवं इनके कार्यों को सुचारु रूप से कराता है।
संधिस्थस्तु श्लेष्मा सर्व संधिसंश्लेषात् सर्वसन्ध्यनुग्रह करोति। (सु. सू. 21/14)
पर्वस्थोऽस्थिसंधिसंश्लेषात् श्लेषक इति। (अ.सं.सू. 20/6)
अर्थात् पर्वों में एवं अस्थिसंधियों के निर्माण में जो श्लेष्मा कार्य करता है। श्लेषक कफ होता है।
सन्धिसंश्लेषाच्छलेषकः संधिषु स्थितः। (अ. ह. सू. 12/17)
जो कफ संधियों में स्थित रहकर संधियों का श्लेषण (स्नेहन और बंधन) करता है वह श्लेषक श्लेष्मा है। आचार्य सुश्रुत ने श्लेष्मधरा कला का वर्णन किया है यह कला सभी संधियों में पाई जाती है। जिस प्रकार अक्ष (धुरी) पर घुमने वाला दण्ड के ऊपर तेल लगाने से गाडी का पहिया अच्छी तरह से घुमता है उसी प्रकार श्लेष्मधरा कला से युक्त (Synovial fluid Membrane) संधियाँ भी अच्छी प्रकार की गति करती है।
अवलम्बक कफ
जो कफ उरः प्रदेश (Thorax) में पाया जाता है। सुश्रुत के अनुसार यह श्लेष्मा त्रिकू प्रदेश को सहारा प्रदान करता है, डल्हण के अनुसार त्रिकू तीन अस्थियों का संगम है। इसमें श्रोणि गुहा (Pelvic Cavity) एवं वक्ष गुहा (Thoracic Cavity) को भी त्रिकू मान सकते है। वक्ष गुहा को कफ का स्थान माना है। वक्ष गुहा का निर्माण Sternum + Ribs + Vertebra के द्वारा होता है। यहाँ पाये जाने वाले अवयव Heart एवं Lungs अवलम्बक कफ का प्रमुख स्थान है।
उरः स्थस्त्रिक संधारणमात्मवीर्येणान्नरससहितेन हृदयावलम्बनं करोति। (सु. सू. 21/13)
वक्ष में स्थिति (Thorax) कफ अपने कार्यकारी तत्वों के प्रभाव से त्रिकू का (Heart & lungs) धारण करते है तथा अन्न रस की सहायता से हृदय को धारण करता है।
उरः स्थः स त्रिकस्य स्ववीर्यत। हृदयस्यान्नवीर्याच्च तत्स्थ एवाम्बुकर्मणा । कफधाम्नां च शेषाणां यत्करोत्यव-लम्बनम्। अतोऽवलम्बकः श्लेष्मा। (अ. ह. सू. 12/15,16)
अर्थात् जो कफ उरः प्रदेश में रहता है तथा अपने कार्यकारी तत्वों विशेषत जल से त्रिकू का धारण करता है। अन्न में उपस्थित पोषकांशों एवं अम्बुकर्म से हृदय का धारण करता है एवं अपने स्थान पर स्थित यह अवलम्बक कफ शेष कफों को बल प्रदान करता है।
अवलम्बक कफ उरः प्रदेश में पाया जाता है। उरः प्रदेश में Tracheobronchial tree, Lungs, pleura, heart, pericardium, Esophagus जैसे संरचनाएँ पायी जाती है। ये सभी संरचनाएँ अवलम्बक कफ के द्वारा सुरक्षित एवं अपने कार्य सुचारू रूप से करती है। अवलम्बक कफ के तीन प्रमुख कार्य-
- त्रिक् धारण
- हृदय अवलम्बन
- अन्य श्लेष्म स्थानों को प्राकृत बनाना।
त्रिक् संधारण :- त्रिकू से तात्पर्य तीन अस्थियों का संयोग/आचार्य डल्हण ने कहा है- यद्यपि श्रोणिकाण्डभागे त्रिकं प्रसिद्धम् यथाप्यत्र बाहुग्रीवास्थित्रयसंघातस्त्रिक् उच्यते। अर्थात् त्रिक् शब्द से मेरुदण्ड के ऊपर भाग (Cervical Vertebra, Calviacal bone एवं Humerus bone) के संधि को डल्हण ने त्रिकू माना है किन्तु Sternum + Ribs + Vertebra के संयोग से बनने वाली वक्ष गुहा ही सम्भवतः कफ का त्रिकू स्थान है। त्रिक् संधारण से यहाँ तात्पर्य है कि त्रिकू में रहने वाले अङ्ग अवयवों जैसे, हृदय, फैफडे (Lungs), आहार निगरण नलिका (Esophagus) आदि के कार्यों को सुचारू रूप से संपादित करना है।
Pleural cavity के मध्य Pleural fluid पाया जाता है यह Lungs के Contractions & Relexation होने पर Parital pleura एवं Visceral pleura के मध्य होने वाले Friction से रोकने का कार्य करती है।
हृदय अवलम्बन- Mesothelium में Squamous epithelium cells पायी जाती है जो कुछ मात्रा में द्रव का स्राव करती है जो Pericardial space में होता है। यह द्रव हृदय के संकोच और विस्फार के समय Pericardium में होने वाले Frication को रोकता है। इसमें द्रव का प्रमाण 25ml से 35ml होता है।
Pleural cavity एवं Pericardial space में पाये जाने वाला Fluid को अवलम्बक कफ मान सकते हैं। रस को कफ का स्थान माना है। जो कफ रस में रहता है वह सभी अङ्ग प्रत्यङ्गों का पोषण एवं धारण करता है हृदय रस का प्रमुख स्थान है सम्भवतया इसलिए यह कफ अन्नरस के पोषकांश से हृदय का अवलम्बन करता है।
कफ के भेद, स्थान एवं कार्य
भेद | स्थान | कार्य | आधुनिक दृष्टि से समानता |
क्लेदक कफ | आमाशय | अन्न को गीला करना | Secretion of mucin in stomach |
बोधक कफ | जिह्वामूल एवं कण्ठ | रस का ज्ञान एवं रोपण कार्य | Secretion of mucin or saliva in mouth |
तर्पक कफ | शिर (Brain) | ज्ञानेन्द्रियों के कार्यों को सम्पन्न कराना | C.S.F. |
श्लेष्मक कफ | संधिस्थल एवं पर्व | संधी संश्लेषण एवं उनमें स्निग्धता उत्पन्न करना | Synovial Membrane |
अवलम्बक | उरः प्रदेश एवं हृदय | 1. त्रिक् धारण 2. हृदय का अवलम्बन 3. अन्य कफ स्थानों को सहारा देना। | Pleural fluid & Pericardial Fluid |