अस्थि धातु (Asthi Dhatu) – कार्य, अस्थिक्षय, अस्थि वृद्धि के लक्षण

अस्थि धातु विशेष रूप से अस्थियों एवं दांतों (Teeth) में पायी जाती है। यह शरीर में सबसे अधिक कठिन धातु है। अस्थि धातु को पार्थिव माना है। अस्थियाँ शरीर का धारण एवं महत्त्वपूर्ण अंग मस्तिष्क (Brain), सुषुम्ना (Spinal cord), हृदय (Heart), फुफ्फुस (Lungs) आदि अंगों की बाहरी आघात से बचाने का कार्य करती है। अस्थि कंकाल शरीर को आकार प्रदान करता है एवं अस्थि कंकाल का निर्माण अस्थि धातु से होता है।

पर्याय :- अस्थिक, अस्थिकंद, अस्थिका अमरकोश में कीकस एवं कुल्य को अस्थि के पर्यायवाची बताया है।

अस्थि धातु (Asthi Dhatu) - कार्य, अस्थिक्षय, अस्थि वृद्धि के लक्षण

अस्थि धातु की उत्पत्ति :-

मेदसोऽस्थि जायते।। (सु. सू. 14/11)

मेद से अस्थि धातु का निर्माण होता है। क्षीर दधि न्याय के अनुसार अस्थि सधर्मी अंश पर अस्थ्यग्नि की क्रिया से अस्थि धातु का निर्माण होता है।

पृथ्वी- अग्नि- अनिलादीनां संघात: स्व उष्मणा कृतः।
खरत्व प्रकरोति तस्य जायते अस्थिषु ततो नृणाम।। (च. चि. 15/30)

पृथ्वी, वायु, अग्नि के संयोग से एवं अस्थ्यग्नि की क्रिया से मेदधातु खरता को प्राप्त होकर अस्थि धातु का निर्माण करती है।

एक काल पोषण न्याय के अनुसार अस्थि धातु का निर्माण अन्न रस में उपस्थित अस्थि सधर्मी अंश पर जब अस्थ्यग्नि की क्रिया होती है तब अस्थि धातु का निर्माण होता है।

अस्थि सधर्मी अंश से तात्पर्य है वे आहार घटक जो अस्थि कोशिकाओं का निर्माण करते है। आयुर्वेद मतानुसार इनमें पार्थिव अंश की अधिकता होती है। आधुनिक दृष्टि से विचार करे तो Organic component में Collagen (Long strands or bundle), Protein, Poly saccharide, Fibrous protein, Glycoamino glycans एवं खनिज लवण में कैल्शियम एवं फास्फेट आदि तत्व होते है जो अस्थि एवं दांतों का निर्माण करते है। ये ही अस्थि सधर्मी अंश है।

आधुनिक दृष्टि से अस्थिधातु एवं निर्माण प्रक्रिया :-

तीन प्रकार की कोशिका (i) Osteoblast (ii) osteocyte (iii) Osteoclast है।

Osteoblast :- अस्थि निर्माण करने वाली एक न्युक्लियस वाली कोशिकाएँ है जिनका निर्माण Osteoprogenitor cells के द्वारा होता है। ये Protein mixture का निर्माण करते है उन्हें Osteoid कहते है। Osteoid का निर्माण Collagen एवं Protein के द्वारा होता है। ये Calcium एवं Mineral के deposition को नियन्त्रित करते है। ये नई Bone की Surface पर पायी जाती है। जब Osteoblast bone cavity को भर देते है तो Cells flat बन जाती है जैसे- पुरानी Osteoblast को Lining cells कहते है जो Calcium की Entry or exit को नियन्त्रित करती है।

Osteocyte :- Osteoblast cell से उत्पन्न होती है। ये अस्थि के अंदर की तरफ होती है। जब नई अस्थि का निर्माण होता है, तब Osteoblast osteocyte में परिवर्तित हो जाती हैं। जब Osteoblast से Osteocyte का निर्माण होता है। तब Bone matrix के द्वारा Trapped एवं Surrounded हो जाती है। इनमें (Osteocyte) जो Space होता है उसे Lacunae कहते है। Osteoblast से Osteocyte बनने में अनेक Process होते हैं। इन Cells का कार्य Bone matrix को स्थिर रखना एवं Calcium Homeostasis बनाये रखना है।

Osteoclast – ये कोशिकाएँ Bone resorption के लिए जिम्मेदार होती है। ये बड़ी Multi nucleated cells है जो कि Bone Surface पर स्थित होती है। अस्थि के टूटने (भंग) पर इन्हें Howship’s lacunac या Resportion pit कहते हैं। Bone suface पर होता है। Osteoclast cells बडी कोशिकाएँ है जो Bone dissolve का कार्य करती है। Osteoclast cells Bone marrow से Produce होती है एवं WBC से मिलती जुलती है। अस्थियों का विकास दो प्रकार से होता है-

  1. Cartilageous ossification
  2. Membrancous ossification

Cartilagenous Way – Cartilage formed – calcified- calcified cartilage undergoes resporption like femur.

Membraneous Ossification – Intial cartilaginous phase does not apper. Example- skull bones.

अस्थिधातु के कार्य :-

प्रीणनं —————- धारण पूरणे।। (अ. सं. सू. 1/33)

अष्टाङ्ग हृदय एवं संग्रह में सात धातुओं के सात कर्म बताये है। अस्थि धातु का कार्य शरीर को धारण करना (Provide base or support to body) बताया है। की है।

अस्थीनि देहधारणं मज्ज्ञः पुष्टिं च। (सु. सू. 15/7

अस्थिधातु शरीर का धारण एवं मज्जा का पोषण करती है।

अभ्यन्तरगतै सारैर्यथा तिष्ठन्ति भूरुहाः। अस्थिसौरस्तथा देहे थ्रियन्ते देहिना ध्रुवम्।।
तस्माच्चिरविनष्टेषु त्वङ्गमांसेषु शरीरिणाम्। अस्थीनि न विनश्यन्ति सारण्येतानि देहिनाम्।। (सु. शा. 5/23-24)

अर्थात् जिस प्रकार वृक्ष अपने अंदर स्थिर सार पर स्थिर रहता है वैसे ही प्राणि अस्थि रूपी सार कारण अपना आकार बनाये रखता है। इसलिए त्वचा एवं मांस के नष्ट हो जाने पर भी अस्थियाँ जो शरीर का सार (कठिन भाग) है, नष्ट नहीं होती है।

संक्षेप में अस्थि शरीर का धारण करती है। ये शरीर को आकार प्रदान करती है।

शरीर के महत्त्वपूर्ण अवयव, मस्तिष्क, हृदय, सुषुम्ना, फुफ्फुस की आघात से रक्षा करती है।

खनिज लवण जैसे कैल्शियम आदि का संग्रह स्थल है।

अस्थियों की संख्या एवं प्रकार :-

चरकानुसार 360 अस्थियाँ होती है। चरक ने दांतों एवं दन्त उलूखल को अस्थि के अंतर्गत मानते हुए गणना की है।

  • सुश्रुत ने 300 अस्थियाँ मानी है।
  • आधुनिक मतानुसार 206 अस्थियाँ है।

प्रकार – पाँच प्रकार की अस्थियाँ होती है-

  1. कपालास्थियाँ (Flat Bones) Like skull bones
  2. रुचिकास्थि (Fragile bons) – Teeths
  3. तरुणास्थियों (Cartilage) – Nasal/ear Bones
  4. वलय अस्थियाँ (Short & irregular Bones) Vertebra
  5. नलक अस्थियाँ (Long Bones) – Humerus bone

अस्थि का संगठन :-

आयुर्वेद मतानुसार अस्थियाँ पाँच भौतिक एवं पृथ्वी महाभूत की अधिकता वाली होती हैं।

आधुनिक मतानुसार

  • 25% जल
  • 75% ठोस पदार्थ

ठोस पदार्थो

  • 25% Organic
  • 75% Inorganic

Organic

  • Collagen
  • Small Amount of Protein- Polysaccharide
  • Glycosaminoglcans

Inorganic

  • Calcium phosphate etc.

अस्थिवह स्रोतस्

  • चरकानुसार – मेदोधातु एवं जघन प्रदेश
  • वाग्भटानुसार – जघन प्रदेश एवं मेद हैं।

अस्थिक्षय के लक्षण :-

केश लोम नख श्मश्रुद्विजप्रपतनं श्रमः ।
ज्ञेयमस्थिक्षये लिङ्गं संधिशैथिल्यमेव च। (च. सू. 17/67)

केश (Hair), लोम (Skin hair), नख (Nail) श्मश्रु या दाढी (Beard), दांतों का गिरना एवं संधि शैथिल्य
अस्थिक्षय के लक्षण हैं।

अस्थिक्षयेऽस्थिशूलं दन्तनखभङ्गो रौक्ष्यं च। (सु. सू. 15/13)

  • अस्थियों में पीडा (Pain in bones)
  • दांत एवं नाखूनों का टूटना
  • रुक्षता (Dryness)

सुश्रुतानुसार ये लक्षण अस्थिक्षय के हैं।

अस्थन्यस्थितोदः सदनं दन्तकेशनखादिषु। (अ.ह.सू. 11/19 )

  • अस्थितोद (अस्थियों में पीड़ा)।
  • अस्थियों में शिथिलता।
  • अङ्गों में शिथिलता।
  • दंत, केश, रोम का गिरना।

अस्थि वृद्धि के लक्षण

अधि अस्थि अधि दंता: च
OR
अस्थ्यध्यस्थीन्यधिदन्ताश्च (सु.सू. 15/19)

  • अधि अस्थि (Abnormal growth of bone).
  • अधि दंत (दांतों का अधिक होना या अप्राकृत वृद्धि) (Abnormal growth of teeth).
  • केश एवं नख की अतिवृद्धि।

अस्थिवह स्रोतस् की दुष्टि के कारण:-

व्यायामादतिसंक्षोभादस्थ्नामतिविघट्टनात्।
अस्थिवाहीनि दुष्यन्ति वातलानां च सेवनात्।। (च. वि. 5/17)

  • अत्यधिक व्यायाम से।
  • अति क्षोभ से।
  • अस्थियों पर अति चोट से।
  • वात वर्धक आहार का अधिक सेवन से।

अस्थि प्रदोषज विकार

अध्यस्थिदन्तौदन्तास्थिभेदशूलं विवर्णता।
केशलोमनखश्मश्रुदोषाश्चास्थि प्रदोषजाः॥ (च. सू. 28/16)

  • अध्यस्थि (Abnormal growth of Bones).
  • अधिदन्त (दांतों का अधिक होना)।
  • दन्त एवं अस्थि में टूटने जैसी पीडा।
  • अस्थि एवं दांतों की विवर्णता।
  • केश, लोम, दाढी, मूंछ के बालों में विकृति का होना।

अस्थिसार पुरुष के लक्षण :-

पाणि गुल्फ जान्वरलिजत्रुचिवुकः शिरः पर्वस्थूलाः स्थूलास्थिनखदन्ताश्चास्थिसाराः साराः ते महोत्साहाः
क्रियावन्तः क्लेशसहाः सारस्थिरशरीरा भवन्त्यायुष्मन्तश्च। (च. वि. 8/107)

ये सभी स्थूल होते हैं।

  • पाणि (एडी) (Heel)
  • गुल्फ (Fetlock or ankle)
  • जानु (Knee joints)
  • अरत्नि (Arm with fist)
  • जत्रु (Clavicle Bone)
  • चिवुक (Jaw)
  • शिर (Head)
  • पर्व (Joints)
  1. अस्थियाँ बहुत स्थूल होती हैं।
  2. नख एवं दंत स्थिर होते हैं।
  3. बहुत उत्साही।
  4. कर्मठ (Energetic)|
  5. कष्ट सहन करने वाला।
  6. दृढ एवं स्थिर शरीर वाला।
  7. दीर्घायु वाला।

जिसका शिर एवं कन्धा बडा हो।
दन्त, हनु, अस्थि एवं नख स्थूल एवं दृढ हो।

अस्थि एवं वात का सम्बन्ध

  1. अस्थि आश्रय है।
  2. वात आश्रयी है।

अस्थि एवं वात में आश्रय-आश्रयी सम्बन्ध है किन्तु रस एवं कफ, रक्त एवं पित्त आदि के आश्रय-आश्रयी सम्बन्ध से भिन्न है। क्योंकि कफ एवं रस को बढाने वाले आहार विहार समान होते हैं अर्थात् जिन आहार एवं औषध के सेवन से कफ बढता है, उन आहार एवं औषध से ही रस बढता हैं। कफ वृद्धि एवं रस वृद्धि के लक्षण समान है किन्तु वात एवं अस्थि में इस प्रकार का सम्बन्ध नहीं है। वात वर्धक आहार से जहाँ वात की वृद्धि होती है किन्तु अस्थि का क्षय होता है।

संतर्पण से रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा एवं शुक्रधातु का तर्पण होता है किन्तु वात का क्षय होता

संक्षेप में –

  • अस्थियों एवं वात दोष में आश्रय-आश्रयी सम्बन्ध होता है।
  • स्वेद रक्त एवं पित्त दोष में आश्रय-आश्रयी सम्बन्ध होता है।

अस्थि, स्वेद, रक्त को छोड़कर अन्य धातुओं, उपधातुओं में कफ दोष में आश्रय-आश्रयी भाव सम्बन्ध होता है

तत्रास्थनि स्थितो वायु पित्तं तु स्वेदरक्तयोः।
श्लेष्मा शेषेषु तेनैषामाश्रयाश्रयिणां मिथा। (अ. ह. सू. 11/26)

आश्रय एवं आश्रयी को बढाने अथवा कम करने वाली औषध एवं आहार समान होते है किन्तु अस्थि एवं बात को बढाने एवं कम करने वाले आहार एवं औषध समान नहीं होते हैं। वात वर्धक आहार-औषध वात को बढाते है किन्तु अस्थि का क्षय करते है।

अतः वात एवं अस्थि में आश्रयी आश्रय भाव सम्बन्ध है किन्तु अन्य आश्रय-आश्रयी से भिन्न होता है एवं चिकित्सा भी भिन्न होती है।

यदेकस्य तदन्यस्य वर्धनक्षपणौषधम्।
अस्थिमारुतयोनैव प्रायो वृद्धिर्हि तर्पणात्।। (अ. ह. सू. 11/27)

अभ्यास प्रश्न

  1. अस्थि के पयार्य एवं अस्थि धातु की उत्पत्ति लिखें।
  2. अस्थि धातु के कार्य एवं प्रकार लिखें।
  3. अस्थि प्रदोषज विकार लिखें।
  4. के क्षय एवं वृद्धि के कारण एवं लक्षण लिखें।
  5. अस्थि सार पुरुष के लक्षण लिखें।
  6. अस्थि एवं वात का आश्रय-आश्रयी सम्बन्ध लिखें।