शारीरिक दोष
आयुर्वेद मतानुसार शरीर का निर्माण पंचमहाभूत एवं आत्मा के द्वारा होता है। पंचमहाभूतों के विकार त्रिदोष (वात, पित्त, कफ), सप्त धातु (रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा एवं शुक्र) एवं मल (मूत्र, पुरीष, स्वेदादि) के रूप में होते हैं।
दोष धातुमलमूलं हि शरीरम् । (सु. सू. 15/3)
अर्थात् दोष, धातु एवं मल को शरीर के मूल (Main factors of body or function & structural unit of body) कहा गया है। इस प्रकार ये दोष धातु एवं मल शरीर की उत्पत्ति, स्थिति एवं विनाश में कारण है।
दोष की निरुक्ति, परिभाषा
“दूषयन्तीति दोषाः।” जो शरीर को दूषित करे उसे दोष कहते है।
शरीरदूषणाद्दोषा धातवो देह धारणाद्। वातपित्त कफा ज्ञेया मलिनीकरणान्मलाः॥ (शा.पू.5/222)
अर्थात् शरीर को दूषित करने के कारण वात, पित्त, कफ को दोष, शरीर का धारण अर्थात् निर्माण करने के कारण रसादि धातुओं को धातु एवं शरीर में अधिक मात्रा में रुके रहने पर शरीर को मलिन करते है इसलिए मूत्र पुरीषादि को मल कहते हैं।
शरीर की प्राकृत-वैकृत अवस्था अर्थात् स्वस्थ और अस्वस्थ दोनों अवस्थाओं का कारण शारीरिक एवं मानसिक दोष हैं। इस दृष्टि से इनकी दो अवस्थाएँ है- प्राकृति किंवा समता और विकृत किंवा क्षय और वृद्धि अर्थात्प्रा कृत अवस्था को समावस्था एवं विकृत अवस्था दो प्रकार की होती है क्षय अथवा वृद्धि।
शारीरिक दोष | मानसिक दोष |
वात | रज |
पित्त | तम |
कफ |
शारीरिक एवं मानस दोष
तत्रव्याधयोऽपरिसंख्येया भवन्ति, अतिबहुत्वात्, दोषास्तु खलु परिसंख्येया भवन्ति अनतिबहुत्वात्। तस्माद्यथाचित्रं विकारानुदाहरणार्थम्, अनवशेषेण च दोषान् व्याख्यास्यामः। रजस्तमश्च मानसौ दोषौ। तयोविकाराः कामक्रोधलोभमोहेर्ष्यामानमदशोकचित्तोद्वेगभयहर्षादयः। वातपित्तश्लेष्माणस्तु खलु शारीर दोषाः। तेषामपि च विकारा ज्वरातीसारशोफशोषश्वासमेहकुष्ठादयः।। (च. वि. 6/5)
अर्थात् बहुत अधिक होने से व्याधियाँ अगणित होती हैं और बहुत अधिक नहीं होने से दोष संख्या युक्त है। इसलिए आचार्यों ने रोगों के उदाहरण के लिए व्याख्या की है एवं विस्तृत व्याख्या दोषों की गई हैं। रज एवं तम मानस दोष है। इनके रोग काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, मान, मद, शोक, चिन्ता, उद्वेग भय शोक आदि होते हैं। वात, पित्त, कफ ये शारीरिक दोष हैं इनके भी रोग ज्वर, अतिसार, शोथ, श्वास, प्रमेह आदि हैं।
सर्वशरीरचरास्तु वातपित्तश्लेष्माणः सर्वस्मिञ्छरीरे कुपिताकुपिताः शुभाशुभानि कुर्वन्ति प्रकृतिभूताः शुभान्युपचयबलवर्णप्रसादादीनि, अशुभानि पुनर्विकृतिमापन्ना विकारसंज्ञकानि। (च. सू. 20/9)
सम्पूर्ण शरीर में विचरण करने वाले वात, पित्त, कफ सम्पूर्ण शरीर में कुपित (क्षय एवं वृद्धि) होने पर अशुभ (रोगोत्पत्ति) एवं अकुपित होने पर शुभ (स्वस्थावस्था) कार्य करते है। प्राकृतावस्था में ये वातादि दोष उपचय (Nutrition), बल (Immunity), वर्ण (Normal colour of skin), प्रसन्नता आदि को बनाये रखते है एवं विकृत होने पर अशुभ अर्थात् रोगोत्पत्ति करते हैं।
वातपित्तश्लेष्माणः एव देह संभव हेतवः। तैरवाव्यापन्नैरधोमध्योर्ध्वसन्निविष्टैः शरीरमिदं धार्यतेऽगारमिव स्थूणभिस्तिसृभिरतश्च त्रिस्थूणमाहुरेक॥ (सु. सु. 21/3)
वात, पित्त, कफ ये शरीर उत्पत्ति के कारण हैं। ये अकुपित अवस्था में क्रमशः अधः (नाभि से नीचे) मध्य (नाभि एवं स्तनों के मध्य) एवं उर्ध्व अर्थात् स्तन से ऊपर या जत्रु के ऊपर कफ रहता है एवं ये शरीर को उसी प्रकार धारण करते है जिस प्रकार त्रिस्तम्भ मकान को धारण करता है।
विसर्गादानविक्षेपैः सोम सूर्य्यानिला यथा।
धारयन्ति जगद्देहं कफपित्तानिलास्तथा।। (सु. सु. 21/8)
विसर्ग (शीतलता के द्वारा), आदान (उष्णता के द्वारा), विक्षेप (नियन्त्रण के द्वारा) क्रियाओं के कर्ता चन्द्रमा, सूर्य एवं वायु इस संसार को धारण करते है। उसी प्रकार कफ द्वारा शीतला उत्पन्न कर, पित्त द्वारा उष्णता या दाह या पाक द्वारा एवं वात द्वारा पित्त एवं कफ की क्रियाओं का नियन्त्रण कर शरीर को धारण करते है।
निष्कर्ष :- उपर्युक्त संदर्भों का अध्ययन करने से पता चलता है कि दोष न केवल रोगोत्पत्ति के कारक है बल्कि ये प्राकृत अवस्था में जब शरीर में रहते है तो ये शरीर क्रियात्मक ईकाई (Function unit/Physioloigical unit) है। इन्हीं के द्वारा शरीर में होने वाली समस्त प्राकृत एवं वैकृत क्रियाएँ होती है। जब दोष समावस्था में रहते है तो सामान्य क्रियाएँ होती है एवं इनके विकृत होने पर ये रोग के प्रमुख कारक है।
त्रिगुण एवं त्रिदोष में सम्बन्ध (Mutual Relationship between Triguna & Tridosha)
सत्वं रजस्तम इति गुणा प्रकृतिसम्भवाः ।
निवध्यन्ति महावाहो देहे देहिनमव्ययम्।। (गीता 14/5 )
सत्व, रज एवं तम ये तीन गुण है जिनसे प्रकृति का निर्माण होता है। ये अविनाशी देहधारी पुरुष को बांध के रखते हैं।
सत्वगुण निर्मल होता है एवं रोग रहित होता है। रज एवं तम को मानसिक दोष कहा जाता है। सत्व रज एवं तम की अधिकता एवं क्षय दोनों ही मानसिक रोगों का कारण होती है। तृष्णा संग से उत्पन्न रजो गुण रागात्मक है यही देह को कर्म में प्रवृत्त कराता है। तमो गुण समस्त देहधारियों को मोहित करने वाला, उनके मन में मोह एवं अविवेक को उत्पन्न करने वाला होता है। इस प्रकार तम गुण समस्त प्राणियों को आलस्य, प्रमाद एवं निद्रा द्वारा बांधता है।
त्रिदोष (वात, पित्त, कफ) प्राकृत अवस्था में समस्त शरीर में होने वाली शारीरिक क्रियाओं के कारक है एवं जब ये वैकृत अवस्था में होते है। तब रोगात्पत्ति होती है।
पित्त में सत्व गुण की बहुलता होती है एवं यह लघु तथा प्रकाशक होता है। वात में रजो की बहुलता तथा यह प्रवर्तक एवं चंचल होता है। कफ में तमो की अधिकता एवं यह गुरु एवं आवरक होता हैं। सांख्यकारिका में कहा है-
सत्वं लघुप्रकाशकमिष्टमुपष्टम्भचपल च रजः।
गुरुवरणकमेव तमः प्रदीपवच्चार्थतो वृत्तिः ॥ (सांख्यकारिका)
इनमें सत्व गुण लघु एवं प्रकाशक, रजो गुण प्रवर्तक और चंचल तथा तमो गुण गुरु एवं आवरक होता है। ये तीनों गुण एक दूसरे के विरोधी है फिर भी जैसे तैल, बत्ती एवं अग्नि परस्पर विरुद्ध होते हुए भी अंधकार नष्ट करने के लिए एक-दूसरे का विरोध त्याग कर प्रकाश करते है। पुरुषार्थ चतुष्ट्य की प्राप्ति में तीनों ही आवश्यक है।
आयुर्वेद में रज एवं तम को मानस दोष माना है। क्योंकि मानसिक रोगों का कारण रज एवं तम दोष को माना है।
वायुः पित्तं कफश्चोक्तः शरीरोदोषसंग्रहः।
मानसः पुनरुद्दिष्टो रजश्च तम एव च। (च. सू. 1/57)
मानसिक रोग एवं शारीरिक रोगों में घनिष्ट सम्बन्ध होता है। रोग की उग्रता में, शारीरिक रोगों से मानसिक रोग की उत्पत्ति होती है एवं मानसिक रोगों से शारीरिक रोगों की उत्पत्ति होती है। अतः शारीरिक गुण एवं मानसिक गुणों में घनिष्ट सम्बन्ध होता है।
सत्वं प्रकाशकं विद्धि रजश्चापि प्रवर्तकम्।
तमो नियामकं प्रोक्तमन्योन्यमिथुनप्रियम्॥ (काश्यप संहिता)
सत्व का विशेष गुण प्रकाश अर्थात् ज्ञान कराना है, जो शारीरिक दोष पित्त के कारण होता है। रज का विशेष गुण प्रवृत्ति या चेष्टा है, जो शारीरिक दोष वात से मिलता है एवं तम का विशेष गुण आवरक अर्थात् प्रवृत्ति से रोकना है, जो कफ से समानता रखता है। प्रत्येक गुण अन्य गुणों के साथ मित्र भाव से रहते हुए अपने विशेष गुण के द्वारा उनकी सहायता करते है एवं अपने नियत कर्म को कराते हैं।
जिन व्यक्तियों में सत्व की अधिकता होती है, वे व्यक्ति सात्विक, संतोषी, मृदु, दयालु, सरल, मन एवं इन्द्रियों की निर्मलता वाले होते हैं, एवं सुख पूर्वक जीवन व्यतीत करने वाले होते हैं। रज की अधिकता वाले व्यक्ति द्वेष, तृष्णा, अहंकार, मद, लोभ विषयासक्ति से युक्त एवं दुःख पूर्वक जीवन व्यतीत करने वाले होते हैं।
तम का विशेष गुण ज्ञान एवं प्रवृत्ति में अवरोध उत्पन्न करना होता है जिसके कारण मिथ्याज्ञान, अज्ञान, निष्क्रियता, तन्द्रा, आलस्य, दीनता, भारीपन उत्पन्न करते है।
सत्व, रज एवं तम के असंतुलन के कारण मानसिक व्याधियाँ होती हैं एवं वात, पित्त एवं कफ के असंतुलन के कारण शारीरिक व्याधियाँ उत्पन्न होती हैं किन्तु जब शारीरिक व्याधियाँ उत्पन्न होती है, तब मन पर गहरा प्रभाव पडता है। अतः उस अवस्था में शारीरिक लक्षणों के साथ-साथ मानसिक रोग या लक्षण देखने को मिलते है। जैसे ज्वर में त्रिदोष वैषम्य के लक्षण के साथ मानसिक लक्षण जैसे प्रलाप, चिडचिडापन आदि देखने को मिलते हैं।
रज, तम के कारण मोह, ईर्ष्या, भय, लोभ आदि मानसिक रोगोत्पत्ति होती है। वर्तमान समय में मानसिक अवसाद (Depression) एक भयंकर मानसिक व्याधि है, जिसके कारण अनेक प्रकार की शारीरिक व्याधियाँ, वात, पित्त, कफ का अंसतुलन होता है। वर्तमान में इन्हें रक्त चाप सम्बन्धी विकार (Hypertension, hypotension) हॉर्मोन का असंतुलन (Hormonal inbalance) आदि के नाम से जाना जाता है। जो इस बात को सिद्ध करता है कि शारीरिक दोषों का असंतुलन मानसिक दोषों को भी असंतुलित करता है एवं मानसिक दोषों का असंतुलन शारीरिक रोग का भी कारण है।
मानसिक एवं शारीरिक दोष में भेद यह है कि मानसिक रोगों में मन के साथ शरीर में भी पीडा होती है। शारीरिक रोगों में प्रथम शरीर में पीड़ा फिर मानसिक पीड़ा होती है। शारीरिक एवं मानसिक रोगों के पुराने (Chronic) होने पर ये परस्पर संयुक्त हो जाते हैं। संयुक्त होने पर शारीरिक रोगों में मानसिक लक्षण एवं मानसिक रोगों में शारीरिक लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं एवं अधिक कष्टकारी होते हैं।
त्रिगुण एवं पंचमहाभूत
तत्र सत्व बहुलमाकाशं, रजो बहुलो वायुः, सत्व रजो बहुलोऽग्निः, सत्व तमो बहुलो आपः तमो बहुलो पृथिवीति । (सु. शा. 1/27)
अर्थात्
क्र.सं. | महाभूत | गुण की अधिकता |
1. | आकाश | सत्व गुण |
2. | वायु | रज गुण |
3. | अग्नि | सत्व एवं रज गुण |
4. | जल | सत्व एवं तम |
5. | पृथ्वी | तम गुण |
सृष्टि की उत्पत्ति प्रकृति से हुई है जो कि त्रिगुणात्मक है। प्रकृति से महान (बुद्धि तत्व) की उत्पत्ति हुई है, वह भी त्रिगुणात्मक है त्रिगुणात्मक बुद्धि तत्व से त्रिगुणात्मक अहंकार उत्पन्न होता है इसका लक्षण अभिमान है, एक- एक गुण की अधिकता से इनके तीन भेद है-
- वैकारिक या सात्विक
- भूतादि या तामस
- तैजस या राजस
अहंकारों की उत्पत्ति के पश्चात् सृष्टि में चेतन एवं अचेतन द्रव्यों की उत्पत्ति होती है। पंचमहाभूतों की उत्पत्ति उनके सूक्ष्म और इन्द्रियातीत (इन्द्रियों से जिनका बोध न हो) स्वरूप से होती है। पाँच महाभूतों की पाँच तन्मात्रा होती है जिनके द्वारा पंचमहाभूतों का निर्माण होता है। ये इन्द्रियातीत द्रव्य तन्मात्रा है जो कि अहंकार (सत्व, रज, तम से युक्त) से उत्पन्न है एवं कारण जब त्रिगुणात्मक है तो कार्य भी त्रिगुणात्मक होगा, इसलिए पंचमहाभूत भी त्रिगुणात्मक है।