स्वरूप :-
ओजस्तु तेजो धातूनां शुक्रान्तानां परं स्मृतम् ।
हृदयस्थमपि व्यापि देहस्थितिनिबन्धनम्।। (अ. हृ.सू. 11/37)
सभी धातुओं का उत्कृष्ट अंश ओज होता है। एक धातु का उत्कृष्ट अंश सार कहलाता है एवं सभी धातुओं का उत्कृष्ट अंश मिलकर ओज का निर्माण करता है। हमारे शरीर के बल (Immunity) को बनाये रखने वाले सभी धातुओं के सार ओज के अंतर्गत आते हैं।
ओज की उत्पत्ति :-
भ्रमरैः फलपुष्पेभ्यो यथा संहियते मधु।
तद्वदोजः स्वकर्मभ्यो गुणैः संह्रियतेनृणाम्।। (च. सू. 17/74/1)
जिस प्रकार भौरें फल तथा पुष्पों से मधु एकत्रित करते है वैसे ही मनुष्य के शरीर में रहने वाले धातुओं के उत्कृष्ट अंश मिश्रित हो ओज का निर्माण करते हैं। शरीर में दैहिक 20 गुण होते है। इनमें से गुरु, शीत, मृदु, श्लक्ष्ण, मधुर, स्थिर, प्रसन्न, पिच्छिल, स्निग्ध ये दस गुण मिश्रित होकर ओज का निर्माण करते हैं।
प्रथमं जायते ह्योजः शरीरेऽस्मिन् शरीरिणाम्। (च. सू. 17/75/1)
शरीर धारियों में सर्व प्रथम ओज की उत्पत्ति हुई है।
तत्र रसादीनां शुक्रान्तानां धातूनां यत्परं तेजस्तत् ।
खल्वोजस्तदेव बलमित्युच्यते) स्वशास्त्रसिद्धान्तात्।। (सु. सू. 15/24)
तत्र बलेन स्थिरोपचितमांसाता सर्वचेष्टास्वप्रतिधातः।
स्वरवर्णप्रसादो वाह्यानामाभ्यन्तराणां च करणानामात्मकार्यप्रतिपत्तिर्भवति॥ (सु. सू. 15/25)
समस्त धातुओं के उत्कृष्ट अंश को ही ओज या बल कहते हैं।
- इस बल से मांस स्थिर एवं पुष्ट होता है।
- व्यक्ति सभी प्रकार की चेष्टाओं को करने में समर्थ होता है।
- उसका स्वर एवं वर्ण प्रसन्न होता है।
- वाह्य (हाथ, पैरों की क्रियाएँ), आभ्यान्तरिक शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं ज्ञानेन्द्रियों की क्रियाएँ उत्तम रूप से होती है।

ओज का स्वरूप :-
सर्पिवर्णं मधुरसं लाजगन्धि प्रजायते ।
ओज घी के समान वर्ण वाला, मधु (शहद) के समान रस वाला अर्थात् मधुर, लाजा के समान गंध वाला होता है। यह शरीर में धातुओं के उत्कृष्ट अंश के रूप में उसी प्रकार पाया जाता है जिस प्रकार दूध में स्नेह (घृत) पाया जाता है।
सर्वधातूनां स्नेहमोजः क्षीरे घृतमिव नृदेव बलमिति। (भा.प्र.3/28)
ओज का पोषण :-
ओज का पोषण रसादि धातुओं की तरह ही अन्न रस से होता है। (च. सू. 28/3)
ओज का स्थान एवं वर्ण
देहः सावयवस्तेन व्याप्तो भवति देहिनाम्।
तदभावाच्च शीर्यन्ते शरीराणि शरीरिणाम्।। (सु. सू. 15/27)
अर्थात् शरीर का प्रत्येक अवयव इस ओज से व्याप्त रहता है तथा इसके अभाव में शरीर नष्ट हो जाता है।
शरीर में उत्कृष्ट ओज (पर ओज) का स्थान हृदय को माना है।
यही हृदय चेतना का स्थान भी है। ओज का स्थान होने के कारण चिकित्सक हृदय को महत् एवं चेतना का स्थान होने के कारण अर्थ कहा जाता है। यथा-
तत् परस्यौजसः स्थानं तत्र चैतन्यसंग्रहः।
हृदयं महदर्थश्च तस्मादूक्तं चिकित्सकैः ।। (च.सु. 30/6)
पर ओज का स्थान एवं स्वरूप
हृदि तिष्ठति यच्छुद्धं रक्तमीषत्सपीतकम्। मृत्यु निश्चित है.
ओजः शरीरे संख्यातं, तन्नाशान्ना विनश्यति॥ (च. सू. 17/74)
लालिमा लिए हुए कुछ पीला पदार्थ जो हृदय में रहता है, उसे ओज कहते है। इसके नाश होने से व्यक्ति का भी नाश हो जाता है।
सर्पिवर्ण मधुरसं लाजगन्धि प्रजायते।। (च.सू. 17/75)
ओज घृत के समान वर्ण का, मधुर रस युक्त एवं लाजा के समान गंध वाला होता है।
अपर ओज :-
प्राकृत श्लेष्मा को अपर ओज माना है। जिसका प्रमाण अर्धाञ्जलि माना है।
ओज के गुण :-
आचार्य चरक ने 10 गुणों का वर्णन किया है ये गुण मद्य एवं विष के विपरीत होते हैं।
गुरु शीतं मृदु श्लक्ष्णं बहलं मधुरं स्थिरम् ।
प्रसन्नं पिच्छिलं स्निग्धमोजो दशगुणं स्मृतम्। च. चि. 24/31)
- गुरु
- शीत
- मृदु
- श्लक्ष्ण
- बहल
- मधुर
- स्थिर
- प्रसन्नं
- पिच्छिल
- स्निग्धं
ये दश गुण चरक ने बताये हैं।
ओजः सोमात्मकं स्निग्धं शुक्लं शीतं स्थिरं सरम्।
विविक्तं मृदु मृत्स्नं च प्राणायतनमुत्तमम्।। (सु. सू. 15/21)
- सौम्य
- स्निग्ध
- श्वेत
- शीत
- शरीर स्थैर्यकारक
- प्रसरणशील
- निर्मल
- कोमल
- पिच्छिल
- प्राणों का श्रेष्ठ आधार
ओज के कार्य:-
पर एवं अपर ओज से प्राणी पोषित होकर जीवित रहते है। अर्थात् ओज प्राणियों को जीवन प्रदान करता है। ओज गर्भ के आरम्भ में शुक्र एवं शोणित के सार के रूप में विद्यमान रहता है एवं हृदय के निर्माण होने पर हृदय में अवस्थित रह जीवन प्रदान करता है। अर्थात् रोग प्रति रोधक क्षमता उत्पन्न करता है। इसके नाश होने से व्यक्ति की मृत्यु निश्चित है अर्थात् रोग प्रतिरोधक क्षमता के बिना जीवन असम्भव है। उदाहरण के लिए जैसा AIDS में होता है।
जो शरीर रस का स्नेह है जिसमें प्राण प्रतितिष्ठत रहता है, हृदय उसी ओज को ओजवह द्वारा शरीर में धमन करता रहता है।
येनौजस वर्तयन्ति प्राणिताः सर्वदेहिनः । यदृते सर्वभूतानां जीवितं नावतिष्ठते ।
यत् सारमादौ गर्भस्य यत्तदूर्भरसाद्रसः। संवर्त्तमानं हृदयं समाविशतियत् पुरा ।।
यस्य नाशात्त नाशोऽस्ति धारि यद् धृदयाश्रितम्। यच्छरीररसस्नेहः प्राणा यत्र प्रतिष्ठिताः॥ (च. सू. 30/9-11)
अष्टाङ्ग हृदय के अनुसार ओज के कार्य :-
ओजस्तु तेजो धातूनां शुक्रान्तानां परं स्मृतम्। हृदयस्थमपि व्यापि देहस्थितिनिबन्धनम् ॥
स्निग्धं सोमात्मकं शुद्धमीषल्लोहितपीतकम्। यन्नाशो नियतं नाशो यस्मिस्तिष्ठति तिष्ठति।
निष्पद्यन्ते यतो भावा विविधा देहसंश्रयाः।। (अ. ह. सू. 11/37-39)
अर्थात् रस से लेकर शुक्र तक सभी धातुओं का उत्कृष्ट अंश ओज होता है। यह ओज हृदय में रहता हुआ सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त है एवं जीवन का आधार है। यह ओज स्निग्ध, सोमस्वरूप (शीत) शुद्ध थोड़ा सा लाल पीला वर्ण का है। इसके नाश होने से निश्चित मृत्यु है और जिसके रहने से जीवन रहता है। इसके कारण नाना प्रकार के भाव पदार्थ उत्पन्न होते है- वह ओज है।
आचार्य सुश्रुत ने ओज को बल कहा है-
तत्र रसादीनां शुक्रान्तानां धातूनां यत्परं तेजस्तत् खल्वोजस्तदेव बलमित्युच्यते, स्वशास्त्रसिद्धान्तात् ॥ (सु. सू. 15/24)
रसधातु से शुक्रधातु तक धातुओं के उत्कृष्ट अंश का नाम ओज है तथा शास्त्र की परिभाषा के अनुसार उसका दूसरा नाम बल है। आचार्य सुश्रुत के अनुसार बल के निम्नलिखित कार्य है-
तत्र बलेन स्थिरोपचितमांसता सर्व चेष्टास्वप्रतिघातः स्वरवर्ण प्रसादो बाह्यानामाभ्यन्तराणांच करणानामात्मकार्य प्रतिपत्तिर्भवति। (सु. सू. 15/25)
अर्थात्-
- बल से (ओज से) मांस धातु स्थिर एवं पुष्ट होती है।
- सभी कार्यों को करने का सामर्थ्य प्राप्त होता है।
- स्वर एवं वर्ण निर्मल रहता है अर्थात् इन्हें निर्मल करता है।
- ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय, बुद्धि एवं मन के कार्यों को ओज उत्तम प्रकार से करता है।
ओजक्षय :- ओज की कमी (Low immunity power)
कारण :-
अभिघातात् क्षयात् कोपाच्छोकाद्धयानान्छ्रमात् क्षुधः।
ओजः सङ्क्षीयते होभ्यो धातुग्रहणनिःसृतम्।
तेजः समीरितं तस्माद्विस्रंसयति देहिनः।। (सु.सू.15/28)
ओजक्षय के निम्नलिखित कारण है-
- अभिघात (चोट लगने से)
- कोपात् (क्रोध करने से)
- ध्यानात् (चिन्तन के अधिक करने से)
- क्षुधः (भूखा ज्यादा रहने से)
- क्षयात् (धातुओं के क्षय से)
- शोकाद् (शोक करने से)
- श्रमात् (अत्यधिक परिश्रम करने से)
उक्त कारणों से शरीर में वायु की वृद्धि होती है एवं यह बड़ी हुई चलायमान वायु ओज को अपने स्थान अर्थात् हृदय एवं धमनियों से निकालकर शरीर के प्राकृतिक कार्यों से वंचित करती है।
ओज क्षय की अवस्था :- तीन अवस्थाएँ होती है-
- विस्रंस
- व्यापत
- क्षय
1. विस्रंस :-
संधिविश्लेषोगात्राणां सदनं दोषच्यवनं क्रियाऽसन्निरोधश्च विसंसे॥ (सु.सू. 15/29)
- विश्लेष- संधियों का विश्लेष (Dislocation) होना।
- गात्रसदन – शरीर के अनों में शिथलता या पीडा का होना।
- दोषच्यवन – वातादि दोषों का अपने स्थान से च्युत (हटना) होना।
- क्रिया-सन्निरोधश्च- शारीरिक एवं मानसिक क्रियाओं का ठीक न होना।
विश्लेषसादी गात्राणां दोषविस्रंसनं श्रमः।
अप्राचुर्य क्रियाणां च बलविस्रंसलक्षणम्॥ (सु. सू. 15/30)
- अङ्गों का विश्लेषण होना (Hernia)
- दोषों का अपने स्थान से भ्रष्ट होना (अर्थात् अपने-अपने स्थान से अन्यत्र गमन)
- बिना परिश्रम के थकावट का होना।
- शारीरिक, मानसिक क्रियाओं में रुकावट आना।
व्यापद :-
व्यापदन्यथापत्तिः सा दुष्टदोषदृष्यसंसर्गात्। (सु. सू. 15/24 डल्हण)
अर्थात् ओज के स्वरूप में दोषों की दुष्टि के कारण विकृति का उत्पन्न होना व्यापद है। Under the influence of vitiated dosha and show some signs & symptoms in the body such as.
गुरुत्वं स्तब्धताऽङ्गेषु ग्लानिवर्णस्य भेदनम्।
तन्द्रा निद्रा वातशोफो बलव्यापदि लक्षणम्।। (सू. सू. 15/31)
- अङ्गों में भारीपन (Heaviness of the body)
- अङ्गों में स्तब्धता आना (Intertness of the body parts)
- ग्लानि (Fatigue of the senses)
- वर्णस्य भेदनम् (Discoloration)
- तन्द्रा (Drowsiness)
- निद्रा (Somnolence)
- वातज शोफ (Neurogenic edema)
ये ओज व्यापद के लक्षण हैं।
ओज क्षय
‘क्षय स्वप्रमाणात् शोकध्यानक्षयादिभिः॥”
शोक (Grief), ध्यान (Anxiety) क्षय (Wasting of dhath) आदि के कारण ओज के प्रमाण में कमी आना।
इसके लक्षण निम्नलिखित हैं-
मूर्च्छा मांसक्षयो मोहः प्रलापो मरणमिति च क्षये। (सु.सू. 15/24)
मूर्च्छात्यादिमूर्च्छाविज्ञानेन्द्रियनिरोधः ।
मोहः वैचित्यम्। प्रलाप, असंबद्धभाषणम्।। (डल्हण )
- मूर्च्छा (Loss of conciousness)
- मांसक्षय (Wasting of muscles)
- प्रलाप (Delirium)
- मोह (वैचित्य) (Irritability)
- मरण (Death)
चरकानुसार-
विभेतिदुर्बलोऽभीक्ष्णं ध्यायति व्यथितेन्द्रियः।
दुश्छायो दुर्मना रुक्षः क्षामश्चैवोजसः क्षये।। (च. सू. 17/73)
- अकारण डरना।
- दुर्बलता।
- निरन्तर चिन्ता युक्त।
- दुःखी इन्द्रिय वाला।
- शरीर की कान्ति का नष्ट होना।
- मन का न लगना (बुरामन) (Mind off) (Unpleasant situation)
- रुक्षता एवं स्वर की क्षीणता
ओज क्षय की चिकित्सा
दोषधातुमलक्षीणों बलक्षीणोऽपि वा नरः ।
स्वयोनिवर्धनं यत्तदन्नपानं प्रकाङ्क्षति ।। (सु. सू. 15/34)
- वातादि दोषों की क्षीणता
- पुरीषादि मलों की क्षीणता
- रसादि धातुओं की क्षीणता
- बल (ओज) की क्षीणता
इन चारों ही अवस्थाओं में रोगी को क्षयस्थ वस्तु की उत्पत्ति करने वाले अन्न-पान की आंकाक्षा होती है।
यद्यदाहारजातं तु क्षीणः प्रार्थयते नरः।
तस्य यस्य स लाभे तु तं तं क्षयमपोहति।। (सु. शा. 15/35)
अर्थात् क्षीण मनुष्य जिस-जिस आहार की आकांक्षा करे, उस-उस प्रकार के आहार समुदाय के प्राप्त हो जाने (सेवन करने से) से उसी क्षय का नाश हो जाता है। अर्थात् क्षयावस्था प्राकृत हो जाती है।
जीवनीयौषधक्षीररसाद्यास्तत्र भेषजम्।
ओजोविवृद्धौ देहस्य तुष्टिपुष्टिबलोदयः।। (अ.हृ.सू. 11/41)
ओजक्षय में जीवनीय गण की औषधियों से सिद्ध दूध एवं घृत का सेवन करना चाहिए।
ओज वृद्धि के लक्षण
ओजोवृद्धौ हि देहस्य तुष्टिपुष्टि बलोदयोः। (अ.हृ.सू. 11/41)
ओज की वृद्धि होने पर शरीर की तुष्टि एवं पुष्टि होती है। (There will not be degeneration and decay of tissue) इसकी वृद्धि होने से रोग प्रतिरोधक क्षमता (Immunity power) की अधिकता होती है।
ओज एवं बल
यद्यपि ओज एवं बल को पर्यायवाची शब्द के रूप में प्रयुक्त किया गया है किन्तु ओज कारण है एवं बल कार्य है- ऐसा समझना चाहिए। आचार्यों ने ओज का स्वरूप, गुण, प्रमाण, कार्य का वर्णन किया है। गम्भीर चिन्तन करे तो हम ये निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि ओज बल का एक प्रमुख कारण है।
बल के प्रकार
बल तीन प्रकार का होता है-
- सहज बल
- कालज बल
- युक्तिकृत बल
सहज बल
सहज बल जन्मजात (Innate) बल होता है। यह प्रकृति प्रदत्त अर्थात् ईश्वर द्वारा प्रदत्त होता है। इसके कारण माता-पिता से सम्बन्ध हो सकता है यद्यपि अपवाद भी दिखने को मिलता है। यदि माता एवं पिता का बल उत्तम होता है तो संतान का बल भी उत्तम होता है।
कालज बल
तीन प्रकार से परिभाषित कर सकते हैं-
1. ऋतुजन्य बल
- शिशिर एवं हेमन्त – उत्तम बल
- शरद एवं हेमन्त- मध्यमबल
- ग्रीष्म एवं वर्षा- हीन बल
2. व्यक्ति की अवस्था
- रोगावस्था – हीन बल
- स्वस्थावस्था- उत्तम बल
3. वयानुसार बल
- बाल्यावस्था – हीन बल
- युवावस्था- उत्तम बल
- वृद्धावस्था – हीन बल
4. युक्तिकृत बल- यह व्यक्ति के आहार-विहार, ऋतुचर्या, दिनचर्या पर निर्भर करता है।